किसी दुर्लभ से दुर्लभतम अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता में
सबसे बड़ी सज़ा है, मृत्युदंड। गुरुवार को 1993 के मुंबई सीरियल
बम धमाकों के मास्टरमाइंड याक़ूब मेनन को फांसी की सज़ा
होने के बाद भी इससे जुड़ी बहस जारी है। एक पक्ष याक़ूब की फांसी को गलत तो दूसरा सही
ठहरा रहा है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि मानवाधिकारों को ध्यान में रखते हुए देश
की दंड संहिता से फांसी या मृत्युदंड को हटा देना चाहिए क्योंकि हम इतने क्रूर नहीं
हो सकते कि खून के बदले खून की नीति पर न्याय करें।
देश में आज़ादी के बाद से अबतक 169 अपराधियों
को फांसी पर के तख्ते पर चढ़ाया जा चुका है और पिछले 21 साल में आठ आतंकियों को फांसी दी गई है।
दुनिया में अक्सर मानवाधिकारों से जुड़े लोग फांसी की सज़ा को खत्म करने की मांग उठाते
रहे हैं और लगभग 140 देश मौत की सज़ा खत्म कर चुके हैं। भारत उन कुछ चुनिन्दा देशों
में से एक है, जहां अब भी मृत्युदंड का प्रावधान है।
भारत नागरिक
व राजनीतिक अधिकारों से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय संधि पर सहमति जता चुका है, जिसमें सदस्य देशों से मौत की सज़ा को खत्म करने के लिए ज़रूरी कार्रवाई करने
के निर्देश दिये गए थे। लेकिन भारतीय दंड संहिता में आज भी बदलाव नहीं किया जा सका
है और यही वजह है कि सामाजिक बहस व विरोध के बावजूद भी याक़ूब को तय समय पर फांसी के
फंदे पर लटका दिया गया।
18वीं सदी
के यूरोप ने मौत की क्रूर सज़ा को खत्म करने की पहल की थी। इसके अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध
के बाद जर्मनी समेत कई अन्य देशों ने फांसी की सज़ा को खत्म करने का निर्णय लिया था।
वर्तमान समय में भी पूरे विश्व में अनेक गैर सरकारी संगठन मौत की सज़ा को खत्म करने
पर ज़ोर दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी 2007 में विश्व के देशों से मृत्युदंड
को रोकने की अपील की थी।
अगर हम मानवीय पहलू
की बात करें तो अगर हमें किसी को जीवन देने का अधिकार नहीं तो किसी की जान लेने का
अधिकार भी नहीं होना चाहिए। यदि मृत्युदंड ही सबसे बड़ी सज़ा होता तो आतंकी जान हथेली
पर रखकर खुद मौत के मुंह में हमला करने न आते। सच तो यह है अब आतंक को मौत का खौफ भी
नहीं रहा, ऐसे में ज़रूरी है कि इससे भी बड़ी सज़ा दी जाए। मौत का विकल्प यह सज़ा भले ही
क्रूर न हो लेकिन आतंकियों और अपराधियों के हौसले ज़रूर पस्त कर दे। पहले भी नारे लगते
रहे हैं,

सज़ा दो-मौत नहीं!