करीम चाचा
राम राम पंडित जी, अस्सलाम वालेकुम भाईजान,
हमारे मंदिर से आरती, तुम्हारे मस्जिद से अजान..
हमारे के हाथ में गीता, तुम्हारे हाथ में कुरान,
तुम्हारा अल्लाह हु अकबर, हमारा जय श्री राम।
हम हिंदुस्तान के हिंदू, तुम मुल्क-ए-हिन्द के मुसलमान,
क्या वाकई? यही, बस इतनी सी है हमारी पहचान?
इससे तो जानवर का बच्चा भी हमें बेहतर जान जाता है,
अरे दो आंखें, दो पैर, एक नाक, दो कान..
कमबख्त ये तो है इंसान...
हां हां, यही है वो इंसान जो पहले खुद को हिन्दू या मुसलमान बताता है,
फिर सामने वाले को हिन्दू मुसलमान बनाता है,
इसके बाद खुद को श्रेष्ठ और दूसरे को बुरा बताता है।
भूलकर की इंसान को बुरा मजहब नहीं, इंसान बनाता है।
दरअसल मैं एक कहानी लेकर आया था,
और शुरू कविता हो गई..
जैसे इंसान प्यार सिखाता धर्म और मजहब लेकर आया था,
और शुरू नफरत हो गई..
तो जो कहानी लाया था, वही सुनाऊंगा..
मोहल्ले से बाहर उस गली में सारे बड़े-बड़े मकान थे,
और उनकी शान में बट्टा बनती थी करीम चाचा की झोपड़ी,
यहां लोगों में प्यार था, बेशुमार था..
हर दिन नई सुबह.. नया त्योहार था..
करीम चाचा भी इसका हिस्सा थे और उन्हें मिलता हर छोटे-बड़े का प्यार था..
चचा के पास एक खजाना था, उनकी झोपड़ी के सामने अमरूद और आम के केवल दो पेड़ों वाला बाग था..
इस बाग में बच्चे खेलने आया करते थे..
और कसीदाकारी में माहिर करीम चाचा..
उनमें अपना बचपन ढूंढते.. मुस्कराया करते थे..
सब ठीक चल रहा था लेकिन एक रोज टीवी के रास्ते पहुंच गई यहां भी नफरत की आग,
कपड़े सिलने से लेकर बटन टांकने वाले करीम अब किसको आते याद,
बच्चों पर भी पाबंदियों का ऐसा लगा साया,
कई दिन बीत गए, उस बगीचे में.. उन पेड़ों पर कोई खेलने नहीं आया..
उस शाम दबे पांव झोपड़ी में मोहल्ले का.. मेरे ही जैसा चिंटू घुसा और उदास बैठे करीम से बिछड़े बच्चे सा लिपट गया..
अगले ही पल उसने पूछा.. चाचा आप बुरे हो क्या? आपने बीफ खाया है?
भारी आंखों से फूट पड़ा वो.. मानो आंखों से ढुलकते आंसू कह रहे हों..
मैं.. बुरा कब हुआ.. ये कैसा तूफान आया..
बोला बच्चे.. मैं बुरा नहीं हूं.. मैंने तो परसों से कुछ नहीं खाया..
ये बताओ.. दो दिन से कोई बच्चा खेलने क्यों नहीं आया?
क्योंकि सब कहते हैं आप मुसलमान हो.. आपने बीफ खाया है..
ये बीफ क्या होता है बेटा.. और क्या होता है मुसलमान?
तुम बच्चे ही तो मेरे अपने हो.. तुमहीं तो हो मेरा नूर मेरी जान..
चिंटू वापस घर लौट आया और सीधा अपने पापा से टकराया..
पापा.. आप क्यों नहीं जाने देते मुझे? करीम चाचा बुरे हैं.. ये झूठ हम बच्चों को क्यों सिखाया?
चुप रहो तुम.. मुसलमानों से दूर रहो!
नहीं हैं वो मुसलमान.. पापा, उन्होंने बीफ नहीं खाया..
आप बुरे हो-आपने झूठ बोला.. आपने मुझे उनसे नफरत करना सिखाया..
हैरान थे पापा.. और अगले दिन पूरा मोहल्ला हैरान था..
कि बच्चों को सही-गलत किसने समझा दिया?
करीम चाचा बुरे नहीं हैं, ये एहसास बच्चों ने बड़ों को दिला दिया..
आज किसी घर से टीवी के चीखते पर्दे की आवाज नहीं आ रही है..
बच्चे खेल रहे हैं बगीचे में.. करीम चाचा की हंसी और बच्चों की शरारत दूर से मुझे नज़र आ रही है..
इस वक़्त यहां न कोई हिन्दू-न मुसलमान है..
न किसी के हाथ गीता, न कुरान है..
तो हम भी बच्चा क्यों बन जाते,
मुझे लगता है आसान होगा दिल से बच्चा बन जाना..
क्योंकि अब मुश्किल हो चुका है,
इंसान को.. हिन्दू या मुसलमान नहीं..
इंसान कह पाना!