Friday, 20 March 2015

खिलौना - प्राणेश तिवारी

   
कितने अच्छे थे वो दिन जब हम छोटे थे,
कोई चाहत हो तो जानबूझकर रोते थे।
चन्द खिलौनों में सिमटी थी हमारी दुनिया,
बहलाकर उनसे मन मिलती थी खुशियां।
वक्त के साथ चलना जमाने ने सिखा दिया,
सच कहूं तो मुझे ही एक खिलौना बना दिया।

जिसने भी चाहा खेल लिया,
भर गया जो मन तो फेंक दिया।
कुछ कदम चले मेरे साथ रहे,
अगले पल मुझको छोड़ दिया।
बचपन का रोना क्या भूले,
दुनिया ने मुझको रुला दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।

जब कोई खिलौना टूट जाता था,
मैं ऊपरवाले से रूठ जाता था।
अब रोज टूटता हूं पर उठ जाता हूं,
रोता है दिल फिर भी मुस्कराता हूं।
हर किसी के हैं यहां दो चेहरे,
मुझको भी मुखौटा लगा दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।

अक्सर मेरे खिलौने खो जाया करते थे,
सपनों में भी याद आया करते थे।
उन खिलौनों की तरह मैं भी खोया हूं कहीं,
पर मुझे याद करने वाला यहां कोई नहीं।
‘प्राणेश‘ को तुम सब याद रहे,
फिर तुम सबने क्यों भुला दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।
     - प्राणेश तिवारी

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