भारत देश
के विकास में महिलाओं का हमेशा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य
में लोकसभा स्पीकर के रूप में दूसरी महिला
सुमित्रा महाजन, अंतरिक्ष मे उड़ान भरती सुनीता विलियम्स, बैडमिंटन में साइना नेहवाल तो टेनिस में सानिया मिर्ज़ा, उद्योग के क्षेत्र में पहचान बना चुकी इन्दिरा नूई हों या चंदा कोचर, अगर हम इन प्रभावशाली महिलाओं की बात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि
भारत मे महिलाओं कि स्थिति में पहले से काफी सुधार आया है। आज महिलाओं को हर
क्षेत्र मे आजादी और समता दी गयी है। चाहे रोजगार की बात हो या शादी की, अब महिलाएं अपनी पसंद का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं। एक वक़्त अबला
कही जाने वाली नारी अब कमजोर नहीं रही, असोम जैसे पिछड़े
क्षेत्र से बॉक्सिंग में ओलंपिक पदक लाने वाली मैरीकॉम इसका उदाहरण हैं। समाज के
लगभग हर तबके में अब महिलाओं को समान अधिकार दिये जाने की बात की जा रही है, साथ ही महिला और बाल विकास मंत्रालय
द्वारा महिलाओं के लिए बाल विकास योजना, सूचना
किशोरी शक्ति योजना और किशोरियों के लिए पोषण कार्यक्रम जैसी कितनी ही योजनाएँ
चलायी जा रही हैं। एक वक़्त था जब महिलाओं का काम घर मे रहकर सिर्फ चूल्हा बर्तन
करना ही था, जबकि आज वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर
चल रही हैं। कभी चहारदीवारी के अंदर पर्दे में रहने वाली महिलाएं आज पुरुषों को
चुनौती देकर अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं। हर वर्ष आने वाले प्रतियोगी
परीक्षाओं के नतीजें हों या फिर उद्योग के क्षेत्र मे बड़े नाम, महिलाओं ने हर क्षेत्र में बाज़ी मारी है।
पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं को मिल रही आज़ादी को सामाजिक मर्यादाओं के
उल्लंघन के रूप में देखा जा रहा है। जहां महानगरों में रहने वाली महिलाएं अपने
निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं, वही ग्रामीण परिवेश अब भी बेटी
को पराया धन और बोझ मानकर चल रहा है। खाप पंचायत के महिलाओं को मोबाइल न देने और
जीन्स पहनने की मनाही को लेकर किए गए फैसले पुरुष प्रधान समाज की संकीर्ण मानसिकता
का प्रतीक हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि अविवाहित महिलाओं के पास मोबाइल मिलने पर
पाँच हज़ार तो विवाहित महिलाओं को दो हज़ार जुर्माना भरना होगा। ये अनावश्यक
प्रतिबंध स्पष्ट करते है कि पुरुषों का एक बड़ा तबका महिलाओं को मिल रही वैचारिक
आज़ादी से बौखलाया हुआ है। उन्हें अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिख रहा है।
मर्यादाओं और रूढ़ियों के नाम पर महिलाओं को हमेशा से ही दबाकर रखने वाला यह तबका
आज सामाजिक कुरीतियों कि पैरवी कर रहा है और महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों के
लिए भी उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी महिलाएं
आवाज़ उठा रही हैं और अपने हक़ के लिए लड़ रही हैं। बात चाहे नोबल पुरस्कार विजेता
मलाला युसुफ़जई की हो या अफगानिस्तान की पहली टैक्सी ड्राईवर सारा बहाई की, इन महिलाओं ने ना सिर्फ आवाज़ उठाई बल्कि खुद को साबित भी किया। प्रिया
झींगन, अंजलि गुप्ता और पुनीता अरोरा जैसी महिलाओं ने भारतीय
सेना में भी महिलाओं की दावेदारी पेश की और साबित किया कि शारीरिक और मानसिक रूप
से कमजोर समझी जाने वाली महिलाएं भी दुश्मन को बराबर कि टक्कर देने का माद्दा रखती
हैं। महिलाओं की आवाज़ को दबाने की सभी
कोशिशें नाकाम हुई हैं क्योंकि आज की महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ना
जानती हैं, वो ना सिर्फ स्वयं जागरूक हैं साथ ही दूसरी
महिलाओं को भी जागरूक कर रही हैं। ये कहना ज़रा भी गलत ना होगा कि महिला सशक्तीकरण
के लिए किए जाने वाले कामों और अभियानों कि कागजी और जमीनी सच्चाई में ज़मीन आसमान
का अंतर है। ग्रामीण परिवेश में रहने वाली महिलाओं को सही मायनों में जागरूक करने
कि आवश्यकता है, क्योंकि वो आज भी अपने अधिकारों से अनजान
हैं और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहने को विवश हैं। यदि इन क्षेत्रों में
महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दिया जाये तो दहेज, घरेलू हिंसा और
महिला उत्पीड़न जैसे अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है। महिलाओं के साथ होने वाली
छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे अपराध पुरुष वर्ग की विकृत मानसिकता के परिचायक हैं, जिन्हें रोकने के लिए सामाजिक सुधार जरूरी है।

कल एक महिला को कहते सुना,
लोग हमें ही दोष देते हैं, लेकिन दोष हममें नहीं उनकी
मानसिकता में है। मुझमें कोई कमी नहीं, कमी उन सबमें है जो
मुझे दोष देकर अपने दामन को साफ बताते हैं। मैं सशक्त हूँ क्योंकि महिला हूँ।
सुधारना है तो खुदको सुधारो और अपनी मानसिकता बदलो। यही तो है वो भारत देश जहां
कहते हैं-
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।