Thursday, 16 April 2015

सशक्त हूँ क्योंकि महिला हूँ

                    भारत देश के विकास में महिलाओं का हमेशा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में लोकसभा स्पीकर के रूप में दूसरी महिला सुमित्रा महाजन, अंतरिक्ष मे उड़ान भरती सुनीता विलियम्स, बैडमिंटन में साइना नेहवाल तो टेनिस में सानिया मिर्ज़ा, उद्योग के क्षेत्र में पहचान बना चुकी इन्दिरा नूई हों या चंदा कोचर, अगर हम इन प्रभावशाली महिलाओं की बात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत मे महिलाओं कि स्थिति में पहले से काफी सुधार आया है। आज महिलाओं को हर क्षेत्र मे आजादी और समता दी गयी है। चाहे रोजगार की बात हो या शादी की, अब महिलाएं अपनी पसंद का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं। एक वक़्त अबला कही जाने वाली नारी अब कमजोर नहीं रही, असोम जैसे पिछड़े क्षेत्र से बॉक्सिंग में ओलंपिक पदक लाने वाली मैरीकॉम इसका उदाहरण हैं। समाज के लगभग हर तबके में अब महिलाओं को समान अधिकार दिये जाने की बात की जा रही है, साथ ही महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा महिलाओं के लिए बाल विकास योजना, सूचना किशोरी शक्ति योजना और किशोरियों के लिए पोषण कार्यक्रम जैसी कितनी ही योजनाएँ चलायी जा रही हैं। एक वक़्त था जब महिलाओं का काम घर मे रहकर सिर्फ चूल्हा बर्तन करना ही था, जबकि आज वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर चल रही हैं। कभी चहारदीवारी के अंदर पर्दे में रहने वाली महिलाएं आज पुरुषों को चुनौती देकर अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं। हर वर्ष आने वाले प्रतियोगी परीक्षाओं के नतीजें हों या फिर उद्योग के क्षेत्र मे बड़े नाम, महिलाओं ने हर क्षेत्र में बाज़ी मारी है।
         
 लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि महिलाओं की ये चुनौती पुरुष वर्ग को गवारा नहीं है। महिलाओं के योग्य प्रबंधन को पुरुष अपने लिए घातक मान बैठे हैं। महिलाओं का उनसे अधिक योग्य होना और ऊंचे पदों पर बैठना पुरुषों के लिए अपमानजनक साबित हो रहा है। महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर की जाने वाली बातों की एक बानगी देखिये, एक ओर तो महिलाओं को देवी मानकर पूजा जाता है और दूसरी ओर महिलाओं के साथ अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। आज के समय मे भी लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर मात्र 921 महिलाओं का है। इससे स्पष्ट होता है कि भ्रूण हत्या जैसे घिनौने अपराध आज भी जारी हैं, पिछले गणतन्त्र दिवस पर प्रधानमंत्री कि भ्रूण हत्या रोकने कि अपील को एक बड़े कदम के रूप मे देखा जा रहा है। सरकार का बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ मिशन भी ज़ोरों पर है, लेकिन आंकड़ो पर नज़र डालें तो वर्तमान समय में महिला और पुरुषों की साक्षरता दर में पूरे बीस प्रतिशत का अंतर देखने को मिलता है। भारत में हर 34वें मिनट एक महिला रेप का शिकार होती है, हर 42वें मिनट यौन उत्पीड़न का दंश झेलती है, हर 43वें मिनट एक महिला का अपहरण होता है, हर 93 मिनट में एक महिला की हत्या कर दी जाती है और हर 103वें मिनट एक महिला दहेज के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। 1993 से 2010 के बीच महिला अपराधों में आश्चर्यजनक रूप से 150 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण है कि महिलाओं को मिल रही स्वतन्त्रता को पुरुष वर्ग हजम नहीं कर पा रहा। कई बार इसके लिए भी महिलाओं को दोषी ठहरा दिया जाता है और उन्हे संभलकर रहने की सलाह दी जाती है। कागज़ पर चलाई जा रहे जागरूकता कार्यक्रमों को आईना दिखने के लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। अब आवश्यकता है इन योजनाओं को कागजों से उतारकर जमीनी हक़ीक़त मे बदलने की।
    पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं को मिल रही आज़ादी को सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन के रूप में देखा जा रहा है। जहां महानगरों में रहने वाली महिलाएं अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं, वही ग्रामीण परिवेश अब भी बेटी को पराया धन और बोझ मानकर चल रहा है। खाप पंचायत के महिलाओं को मोबाइल न देने और जीन्स पहनने की मनाही को लेकर किए गए फैसले पुरुष प्रधान समाज की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि अविवाहित महिलाओं के पास मोबाइल मिलने पर पाँच हज़ार तो विवाहित महिलाओं को दो हज़ार जुर्माना भरना होगा। ये अनावश्यक प्रतिबंध स्पष्ट करते है कि पुरुषों का एक बड़ा तबका महिलाओं को मिल रही वैचारिक आज़ादी से बौखलाया हुआ है। उन्हें अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिख रहा है। मर्यादाओं और रूढ़ियों के नाम पर महिलाओं को हमेशा से ही दबाकर रखने वाला यह तबका आज सामाजिक कुरीतियों कि पैरवी कर रहा है और महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों के लिए भी उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी महिलाएं आवाज़ उठा रही हैं और अपने हक़ के लिए लड़ रही हैं। बात चाहे नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई की हो या अफगानिस्तान की पहली टैक्सी ड्राईवर सारा बहाई की, इन महिलाओं ने ना सिर्फ आवाज़ उठाई बल्कि खुद को साबित भी किया। प्रिया झींगन, अंजलि गुप्ता और पुनीता अरोरा जैसी महिलाओं ने भारतीय सेना में भी महिलाओं की दावेदारी पेश की और साबित किया कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर समझी जाने वाली महिलाएं भी दुश्मन को बराबर कि टक्कर देने का माद्दा रखती हैं। महिलाओं की आवाज़ को दबाने की सभी  कोशिशें नाकाम हुई हैं क्योंकि आज की महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ना जानती हैं, वो ना सिर्फ स्वयं जागरूक हैं साथ ही दूसरी महिलाओं को भी जागरूक कर रही हैं। ये कहना ज़रा भी गलत ना होगा कि महिला सशक्तीकरण के लिए किए जाने वाले कामों और अभियानों कि कागजी और जमीनी सच्चाई में ज़मीन आसमान का अंतर है। ग्रामीण परिवेश में रहने वाली महिलाओं को सही मायनों में जागरूक करने कि आवश्यकता है, क्योंकि वो आज भी अपने अधिकारों से अनजान हैं और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहने को विवश हैं। यदि इन क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दिया जाये तो दहेज, घरेलू हिंसा और महिला उत्पीड़न जैसे अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है। महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे अपराध पुरुष वर्ग की विकृत मानसिकता के परिचायक हैं, जिन्हें रोकने के लिए सामाजिक सुधार जरूरी है।
    सकारात्मक पहलू की बात करें तो आज के युवाओं में लिंगभेद जैसी कोई भावना नहीं है। गैरजिम्मेदार समझे जाने वाले युवाओं को अपनी ज़िम्मेदारी का पूरा एहसास है, वो एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना जानते है। आज का युवा लड़के और लड़की मे भेदभाव नहीं करता, उसे मालूम है कि महिला और पुरुष एक ही गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं और इन दोनों का साथ चलना जरूरी है। परिवार मे जितना महत्व पुरुष का है उतना ही स्त्री का भी क्योंकि कहा जाता है की नारी घर की लक्ष्मी होती है। आज की लक्ष्मी तो घर और ऑफिस दोनों संभालने में सक्षम है, इसलिए उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। मर्यादाओं और संस्कृति के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का हनन करने वाले समाज के ठेकेदारों को सोच लेना चाहिए कि आज का युवा किसी की बातों में आकर अपना अहित करने वालों मे से नहीं है, उसे सही और गलत का भान है और पता है कि उसे क्या करना चाहिए। राजधानी दिल्ली में हुए निर्मम दामिनी हत्याकांड के बाद युवाओं का आक्रोश पूरे विश्व के लिए सुर्खियां बना था। उस अपार आंदोलन मे ना तो कोई नेतृत्व था और ना ही कोई रणनीति, थे तो केवल युवा। जहां सोशल मीडिया एक मंच बना और दिल्ली रण। युवाओं ने जता दिया कि महिला सुरक्षा के मुद्दे पर सभी एकजुट हैं और आनन फानन में महिला सुरक्षा संबंधी नए कानून बना दिये गए। महिलाओं के पास सबसे बड़ा हथियार है सोशल मीडिया और नए संचार माध्यम, इनकी सहायता से वो अपनी सफलता के रास्ते मे आने वाली हर रुकावट से उबरकर खुद को साबित कर सकती हैं। अच्छी बात यह भी है कि अब महिलाओं को किसी के सहारे की जरूरत नहीं होती, वो खुद दूसरों का सहारा बनने का दम रखती हैं।    
कल एक महिला को कहते सुना, लोग हमें ही दोष देते हैं, लेकिन दोष हममें नहीं उनकी मानसिकता में है। मुझमें कोई कमी नहीं, कमी उन सबमें है जो मुझे दोष देकर अपने दामन को साफ बताते हैं। मैं सशक्त हूँ क्योंकि महिला हूँ। सुधारना है तो खुदको सुधारो और अपनी मानसिकता बदलो। यही तो है वो भारत देश जहां कहते हैं- 
                            यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता।