Sunday, 21 February 2016

खुद से रूठा सा हूँ मैं! (स्वरचित)


न उसकी कोई गलती थी न हमने खता की,
वक़्त बदला यूँ कि सारी खुशियां मिटा दीं।
जानते थे एक दिन ज़रूर आएगा ये मंज़र,
पर इस तरह न आए इसकी हरदम दुआ की।
अश्क थे उन आँखों में जिनमे परछाईं मेरी होती थी,
जिनके सामने होने पर तनहाई मेरी खोती थी।
हम दूर थे इतना उनसे नज़रें भी न मिला सके,
बिछड़ने से पहले उन्हें गले भी न लगा सके।


टूटना था रिश्ता तो झटके से तोड़ दिया,
दर्द का एहसास हो इससे पहले मुंह मोड़ लिया।
सच्ची चाहत थी और सच्चे थे वादे भी,
 न चाहते हुए भी उसने मेरा साथ छोड़ दिया।



अकेला खड़ा मानों ठिठका सा हूँ मैं,
समझ ही न आए कि अब क्या करूँ मैं।
कर सकूं कल से एक नई शुरुआत शायद,
मगर एक बार फिर से तनहा सा हूं मैं।
खुद से छूटा सा हूँ मैं, फिर से टूटा सा हूं मैं, 
एक बच्चे की तरह खुद से रूठा सा हूँ मैं।

-: प्राणेश तिवारी