Monday, 19 October 2015

ढलती शाम को मेरा सलाम!

कल सुबह उगते सूरज को सलाम करते हुए मुझे उस वक़्त की याद आयी जब विश्वाकाश में आजाद भारत सूरज की तरह उदित हुआ था।
साथ ही याद आ गए मुझे वो अपने जो उस वक़्त की यादें मेरे साथ साझा करते रहे हैं। मेरे दादा जी अक्सर उस वक़्त का ज़िक्र करते हुए भावुक हो जाते हैं जब हर शाम चौपाल लगा करती थी, लोग सुख दुख में साथ थे, बाज़ारों में रौनक थी और हर चेहरे पर मासूम मुस्कान।

हर शाम उनकी कहानियाँ मुझे उस भारत की सैर करती हैं जब हर किसी को डाकिये और अपनों की चिट्ठी का इंतज़ार होता था। हर सुबह पूरा गाँव रेडियो पर समाचार सुनने बैठता था और जब भी गाँव में नौटंकी होती थी तो क्या बच्चे और क्या बूढ़े, सब पहुँच जाते थे। गलियों में तो मानों कर्फ़्यू लग जाता था।


सच कहूँ तो मुझे परियों और राजा-रानी की कहानियां सुनकर उतना मज़ा नहीं आया, जितना दादा जी के अनुभवों को सुनकर आता है। कितनी बार मन हुआ कि मैं भी उस वक़्त में जा सकूँ और अपने हाथ से मिट्टी के खिलौने बना सकूँ।
दादा जी बताते हैं कि पहले गाँव में सब एक कुएं से पानी लेने जाया करते थे, चूल्हे पर खाना बनाने के लिए उन्हें लकड़ी लेने दूर तक जाना पड़ता था। इंटरनेट और मोबाइल क्या, उस वक़्त तो गाँव में बिजली तक नहीं थी। भोलेपन में एक दिन मैंने पूछ ही लिया, तब तो ज़िंदगी बहुत मुश्किल रही होगी न दादा जी! उनके जवाब ने मुझे यह एहसास दिलाया कि आज वर्चुअल वर्ल्ड से जुडते हुए हम, खुद से कितना दूर हो गए हैं।

मेरे मासूम से सवाल के वैसे जवाब की शायद मुझे कोई उम्मीद नहीं थी। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ज़िंदगी तब बहुत आसान थी बेटा! मुश्किलें तो अब पैदा हो गयी हैं। सच ही तो है, तब बाज़ार में सिर्फ चीज़ें ही नहीं, होंठों पर हंसी और सच्चे साथी भी सस्ते थे। कहने को तो हमारे पास सारी सुविधाएं हैं, लेकिन संतुष्टि और प्यार कहीं खो चुका है। फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर बनावटी तस्वीरें अपलोड करते-करते हमारा प्यार, हमारा रहन-सहन सब बनावटी और बोझिल हो चला है।


इन्टरनेट की वर्चुअल दुनिया में हजारों लोगों से जुड़ा व्यक्ति यह तक नहीं जानता कि उसके पड़ोस में कौन सा नया परिवार रहने आया है। कहते हैं इन्टरनेट पर सबकुछ मिलता है, लेकिन क्या सच में! मिल सकती है वहाँ गाँव की सोंधी मिट्टी की खुशबू, कुएं का पानी या फिर नौटंकी के अनोखे बाजे की बेसुरी लेकिन मज़ेदार आवाज़। बेशक हम चैट ग्रुप्स बनाते हों, लेकिन इंटरनेट पर कोई चौपाल नहीं लग सकती।

हाथों में स्मार्टफोन्स ने मानों हमें अपना गुलाम बना लिया है। बूढ़े हो चले डाकिये पर अब चिट्ठियों का बोझ नहीं रहा, क्योंकि हमें चिट्ठियों का नहीं बल्कि एसएमएस का इंतज़ार है। यूं तो हर दूसरे पल हम अपनों की खबर ले सकते हैं, लेकिन कब कौन घर आया कौन गया, पता ही नहीं चलता। एक ही छत के नीचे रहने वाले अब एक-दूसरे से फोन पर बात करने के आदी हो गए हैं।


त्योहारों का देश कहे जाने वाले भारत में अब त्योहार कब आये और गए पता ही नहीं चलता। लगभग खत्म हो चुके मेलों में मिट्टी के खिलौनों की इक्का-दुक्का दुकानें देखी हैं मैंने, लेकिन कोई खरीददार नहीं दिखे। न तो होली पर सुरीला फाग गाने वाले रहे हैं और न सुनने वाले। डीजे और रीमिक्स का शोर उन्हें कहीं पीछे छोड़ आया है। दीपावली पर घर से ज़्यादा दीप अब लोगों की प्रोफाइल फोटो पर दिखते हैं, पटाखों के शोर में उस भारत की आवाज़ मानों दब सी जाती है, जिसकी कहानियाँ दादा जी मुझे सुनाया करते हैं।

सच कहूँ, कभी-कभी तो डर लगता है। यह तेज़ रफ्तार दुनिया हमें जहां लेकर आई है, यहाँ से आगे जाना शायद ठीक न हो। दादा जी के पास मुझे सुनाने को बहुत से अनोखे किस्से हैं, लेकिन मैं अपने पोते को क्या सुनाऊँगा! क्या इस इंटरनेट, रीमिक्स और बनावटी दुनिया की कहानी! ओह, मैं भी कितना नादान हूँ। उसके पास मुझे सुनने के लिए वक़्त ही कब होगा, एक के बाद एक नई तकनीकें उसके बचपन को शुरू होने से पहले ही खत्म कर देंगी।

हम वक़्त के साथ चलने लगे हैं या फिर शायद उससे भी तेज़। तकनीक और संचार की नई युक्तियाँ हमारी सुविधाएं बन तो रही हैं, लेकिन हमें सुकून और सच्ची खुशी नहीं दे पा रहीं। एक पल ठहरकर कुछ सोचने की ज़रूरत है, कहीं हम सब कुछ जानते हुए भी अंजान तो नहीं बन रहे। हमने अपने लिए और अपनों की भलाई के लिए जो तरक्की की, उस तरक्की ने ही हमें अपनों से दूर कर दिया है।

काश मेरे दादा जी उस आज़ाद भारत को, उस युवा सूरज को एक बार फिर महसूस कर पाते, जो बस डूबने ही वाला है। हमने आपसे आपकी छोटी सी दुनिया छीन ली दादा जी, फिर भी आपने मुझे उस भारत से मिलाया, मुझे आप पर गुमान है। आपको, इस डूबते सूरज को, ढलती शाम को और मेरे भारत को दिल से मेरा सलाम है।


Friday, 9 October 2015

"उलझन"

वक़्त की रेत पर नाम लिखने चला हूँ,
जो बन न सका अब वो दिखने चला हूँ।
उजाले को दीपक भी मैंने जलाये,
अँधेरी गली में भटकने चला हूँ।
मिला जो भी मैंने गले से लगाया,
सहारा दिया और समय से मिलाया।
जाने कहाँ रह गयी थी कमी पर,
हर किसी ने मुझे ही बुरा क्यों बनाया।

यूं तो लड़ता हूँ खुद से नयी जंग मैं भी,
भरता हूँ जीवन में कुछ रंग मैं भी,
चाहत बना हूँ कई दिलों की मैं,
पर कुछ हैं जिन्हें चाहता आज मैं भी।
सुनहरा हो कल ये इबादत नहीं है,
मिलें सारी खुशियाँ ये चाहत नहीं है।
सुनाता हूँ अपनी कहानी जो सबको,
कहते कल जो सुना था ये किस्सा वही है।

कल को उलझा हुआ अब सुलझने लगा हूँ,
वक़्त की आग में यूं सुलगने लगा हूँ।
टूटा हुआ अब मैं जुड़ने चला हूँ,
शायद मैं खुद को समझने लगा हूँ।
-: प्राणेश तिवारी