Thursday, 3 March 2016

पैरों में पहना जाता हूं!

कभी पैरों में पड़ा तो कभी घर के कोने में; मैं जूता हूं। जाने क्यों लोग मुझे इतना गिरा हुआ समझते हैं? कहते हैं तुम्हे तो मैं पैरों की जूती भी न बना । आखिर क्या ग़लती है मेरी? धूल ; पत्थर और कांटो से भरे रास्तों में तुम्हारे पैरों को बचाता हूं; खुद उफ भी नहीं करता जाने क्या क्या सह जाता हूं।
मुझे पाॅलिश करने का वक्त भी नहीं होता तुम्हारे पास। क्या तुम्हें पता है, बाहर बैठे बूट पाॅलिश वाले राजू को एक वक्त की रोटी मैं ही दिलाता हूं। इतना छोटा भी मत समझो मुझे, बड़े बड़े लोगों को फेंककर मारा जाता हूं। जब भी किसी के सिर पर पड़ता हूं, तो सिर्फ दर्द ही नहीं देता, उसका सम्मान भी ले जाता हूं।

कुछ भी हो जूता हूं, पैरों में पहना जाता हूं। दर दर की ठोकरें खाता हूं, घिसता हूं, फट जाता हूं और कबाड़ में फेंक दिया जाता हूं। जाने क्यों मैं गिरा हुआ समझा जाता हूं?
               लेकिन मेरी अहमियत तो उस दिन समझ आती है, जब मैं मन्दिर से चोरी हो जाता हूं। जब तुम नंगे पांव घर आते हो, तो मैं बहुत याद आता हूं। पर क्या करुं? जूता हूं पैरों में पहना जाता हूं।

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