Saturday, 26 November 2016

मेट्रो सा मन मेरा,कुछ पल ठहरा पर चलता ही रहा


               दिल्ली में कहीं ज़मीन से ऊपर तो कहीं ज़मीन से नीचे दौड़ती मेट्रो, जिसे राजधानी की जीवन रेखा भी कहा जाता है, अपनी अलग जगह बना चुकी है। जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो सबसे ज़्यादा रोमांचक मेरे लिए मेट्रो का सफर रहा। अब यह  रोमांच मेरी ज़रुरत बन चुका है और मेट्रो मेरी दोस्त। मेट्रो से अब ऐसा लगाव हो चुका है कि खुदमें इसको ढूंढने लगा हूं। मैंने पाया है मेट्रो को.. मुझमें। 
         मेट्रो मेरा मन है, जो बस चलता ही जाता है। उसी रफ़्तार से, उसी सीधे रास्ते पर, जहां से होकर जाता है मेरी ज़िन्दगी का सफर। एक के बाद एक आनेवाले स्टेशन मेरी ज़िन्दगी के पड़ाव होते हैं और इसमें चढ़ने वाली सवारियां मेरी यादें। यादें, कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ कमज़ोर, कुछ ताकतवर, अलग-अलग तरह की ढेर सारी यादें। यूं तो हर याद सुरक्षा जांच के बाद ही मेरे मन में जगह बनाती है, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ ऐसी यादें अंदर आ ही जाती हैं जो आसपास की दूसरी यादों को भी परेशान कर देती हैं। अक्सर सोचता हूं काश! मैं खुद चुन सकता कि कौन सी याद मेरे मन में जगह बनाएगी और कौन सी नहीं। लेकिन मेरी मर्ज़ी नहीं चलती, जो याद पहले आती है जगह पाती है और मेरा हिस्सा बन जाती है। दरवाज़े बंद करके चल पड़ता है मन अगले पड़ाव की ओरक्योंकि ज़िन्दगी कभी नहीं रुकती। 


           जब मेट्रो ज़मीन से नीचे चलती है तो मन मानो शांत होता है। न यादों को बाहर की तेज़ धूप या यूं कहूं दुनिया वालों की नज़र का एहसास होता है और न फ़िक्र। जब मेट्रो सा मन लोगों की नज़र में आने लगता है और यादों को नज़र लगने का डर रहता है तो मेरी भावनाओं की ठंडक उसकी यादों को परेशान नहीं होने देती। इन यादों को सुरक्षित समेटे और समझदारी का अनाउंसमेंट सुनाते बढ़ता जाता है मन। 
              न तो मैं रुका और न ही इन यादों को कभी रोकने की कोशिश की। नई यादों को जगह देने के लिए पुरानी यादों को जगह खाली करनी ही होती है। पुरानी यादें छोड़ता चलता हूं क्योंकि कई बार यह भी ज़रूरी हो जाता है। एक पल ऐसा भी आता है कि मन की मेट्रो में यादों के लिए जगह नहीं बचती और मैं दरवाजे बंद कर लेता हूं। छोड़ देता हूं बाकी यादों को पीछे। यादों की भीड़ मुझमें जगह बनाने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन क्या करूं सारी यादें तो नहीं बटोर सकता। यह भी सोचता हूं कि शायद कोई अच्छी या फिर ऐसी याद पीछे रह गई हो जिसे मेरी ज़्यादा ज़रुरत थी। कहते हैं जो पीछे छूट जाए उसके बारे में सोचकर दुखी होने से अच्छा है कि आगे आने वाले पड़ावों से यादें साथ ले ली जाएं, मैं भी  यही करता हूं। 
                   मेट्रो की लाइनें और उनके रंग याद दिलाते हैं जिंदगी के रंगीन पहलू। लाल मेरा प्यार, पीला मेरी दोस्ती और नीला मेरा परिवार। सफर में राजीव चौक सा एक पड़ाव ऐसा भी आता है। जब ये तीनों लाइनें आपस में मिलती है और इतनी ढेर सारी यादें पास होती हैं कि उलझन सी होती है। दोस्ती, परिवार और प्यार के बीच अंतर कम हो जाता है। कई बार तो यादें भी नहीं समझ पातीं कि उन्हें दोस्ती वाली लाइन में जाना है या प्यार वाली। लेकिन इस सबसे अलग मेट्रो चलती रहती है। राजीव चौक ही क्यों न हो, यादों के पास ज़्यादा वक़्त नहीं होता, उन्हें भी पता होता है कि अगर छूट गईं तो लंबा इंतज़ार करना होगा। 
           मेरे मन की मेट्रो जैसे-जैसे आखिरी स्टॉप या यूं कहूं मेरी मंज़िल तक पहुंचती जाती है, पुरानी यादें तो पीछे छूटती चलती ही हैं, नई यादें भी कम जगह बनाती हैं। मंज़िल पर पहुंचकर मैं बिल्कुल खाली हो जाता हूं लेकिन मन का खालीपन वापस भरने का मन करता है। मैं लौटना चाहता हूं वापस उसी सफर पर, उन्हीं पड़ावों पर। समेटना चाहता हूं यादें एक बार फिर। मैं ठहरता जरूर हूं पर रुकता नहीं, क्योंकि मैं मेट्रो हूं, मन हूं। अरे हां, मेट्रो सा मन हूं।

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