Wednesday, 30 November 2016

ठण्ड की वो शाम.. खाली बेंच और इंतज़ार

               उस शाम वो बसस्टॉप की ठंडी बेंच पर चुपचाप बैठा था। खाली, एकदम खाली। मन में ढेर सारे विचारों का गुबार सा उठ रहा था, लगातार कुछ सोच रहा था वो। उसे खुद इस बात का एहसास नहीं था कि बेंच पर बैठे एक घंटे से ज़्यादा वक़्त बीत चुका है और अंधेरा धीरे-धीरे घना होता जा रहा है। दरअसल वो खुद भी उलझा हुआ था, खुदसे ये पूछने में कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्यों। विचार आते जा रहे थे और वो किसी मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह उन्हें लात मारता जा रहा था। आखिर वह कर क्या रहा था, इस एक विचार को लात मारने ही वाला था कि रुक गया। हां! मैं क्या कर रहा हूं यहां? इतनी ठण्ड में। सामने एक बस खड़ी थी और उसकी खाली बेंच से दूर कुछ सवारियां बस के चलने के इंतज़ार में थीं। 'इंतज़ार', यहीं पर आकर आज थम गया वो। वो न तो कुछ करने आया था और न ही कुछ कर रहा था लेकिन अब उसके पास भी करने को कुछ था। ये कुछ था, इंतज़ार!
         उसने इंतज़ार करने का मन बनाया। किसी बस का नहीं, किसी इंसान का नहीं, किसी सपने, किसी चीज़ का नहीं। खुद का और इन विचारों के रुकने का इंतज़ार। अब उसे बेंच पर घंटों बैठने का मकसद समझ आ रहा था, वो भी तो इंतज़ार कर रहा था। वो बस सोचता जा रहा था, शायद खुद को तसल्ली देने के लिए सबसे आसान होता है इंतज़ार। हम किसी का करते हैं और कोई हमारा। इंतज़ार करने का ख्याल मन में आता ही किसी ज़रुरत के बाद है। हमें किसी की ज़रुरत हो और वो पास न हो तो इंतज़ार शुरू हो जाता है। हमें कुछ चाहिए और मिल नहीं पा रहा, क्या करेंगे इंतज़ार के अलावा। कई बार तो हमें भी नहीं पता होता हम किसका इंतज़ार कर रहे हैं, पर एक खालीपन होता है जिसे भरने की चाहत इंसान से लंबा इंतज़ार करवाती है। इंतज़ार करना विकल्प नहीं, ज़रुरत नहीं, मज़बूरी है। किसे अच्छा लगता है एक पल भी इंतज़ार करना, पर क्या करें करना पड़ता है।
       कभी सोचा है अगर इंतज़ार ही न हो तो! बेबस हो जाएगा इंसान। या तो बेचारा बन जाएगा या तो ताकतवर। तो कई बार इंतज़ार ज़िन्दगी भर का हो जाता है, कई बार ख़त्म हो जाता है। इंतज़ार जितना लंबा हो तक़लीफ़ उतनी बढ़ती जाती है। पर कोई क्या करे अगर इंतज़ार करते-करते अरसा बीत जाए और कोई न आए, क्या करना चाहिए उसे। खुद से यह कहना चाहिए कि बस अब और नहीं और ख़त्म करना चाहिए इंतज़ार, लेकिन सिर्फ तब जब खुदपर यकीन हो जाए। जब पता हो कि अब मुझे उसकी ज़रुरत ही नहीं जिसका मैं इंतज़ार करता रहा तो यही सही वक़्त है इंतज़ार ख़त्म करने का।
         उसके सामने से एक के बाद एक बसें गुज़र रही थीं, क्योंकि हर स्टॉप पर लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। लोग बस का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि कोई उनका इंतज़ार कर रहा था। बेंच खाली है फिर भी कोई सवारी उसपर नहीं बैठती, इसकी वजह भी इंतज़ार है। इंतज़ार भी ऐसा जो चैन से बैठने नहीं देता, सुकून नहीं मिलने देता। बस खाली है फिर भी उन्हें जल्दी चढ़ना है जिससे उनका इंतज़ार जल्दी ख़त्म हो। इंतज़ार भी जब हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो परेशान कर देता है।
         इंतज़ार करने वाले को ज़रुरत पूरी होने से ज़्यादा उसे पूरा करने वाले का इंतज़ार होता है क्योंकि अक्सर लोग यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि उस एक चीज़ के अलावा ज़रुरत पूरी करने के लिए कोई विकल्प नहीं। वो उन परेशान चेहरों को देख रहा था जिन्हें उनकी बस का इंतज़ार था, बार-बार सड़क के दूसरे छोर को देख रहे थे। किसी भी बड़ी बस को आता देख उम्मीद बांध लेते थे और पास आकर वो निराश कर जाती थी। उन्हें सिर्फ अपनी उसी बस का इंतज़ार था जो उनका इंतज़ार कर रहे दूसरों का इंतज़ार ख़त्म कर सके। सामने खड़े ऑटो को सारे ऐसे नज़रंदाज़ कर रहे थे मानों वो वहां हों ही नहीं। इंतज़ार तो उन्हें बस का था न! भूल ही गए थे वो कि शायद आधे घंटे से अपनी बस का इंतज़ार करने से बेहतर होगा ऑटो से जल्दी जाकर बाकियों का इंतज़ार ख़त्म करना।
       उफ़! कितना उलझे हुए हैं सब आपस में, उसने खुदसे पूछा। अच्छा लगने लगा उसे यह सोचकर कि उसे किसी बस का इंतज़ार नहीं करना क्योंकि किसी को उसका इंतज़ार नहीं और उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं। उसकी यह खुशी अचानक फीकी पड़ गई, चेहरे का रंग उतर गया और आंखें भर आईं। कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा, क्या सच में! पिछले तीन घंटे में किसी ने नहीं पूछा कहां हो, आ जाओ न। मोबाइल की स्क्रीन भी सिर्फ वक़्त बता रही थी, कोई मैसेज नहीं था वहां। इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि किसी को उसको ज़रुरत ही नहीं। उसे गुस्सा भी आया और रोना भी, मन बना लिया कि अब इस बेंच से तब तक नहीं जाएगा जब तक कोई उसे बुलाता नहीं।
         वक़्त बीत रहा था और उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। क्या सच में किसी को उसकी ज़रुरत नहीं, यह सच वो मानने को तैयार ही नहीं था। इससे पहले कि पलकों पर ठहरे आंसू बाहर आने की जगह बना पाते, अचानक वह हंस पड़ा। इस हंसी की वजह थी उसकी अपनी नादानी। इंतज़ार के बारे में सोचते-सोचते वो खुद इसके चंगुल में फंसकर गंवा बैठा था अपना चैन। वो भी तो इंतज़ार करने लगा था किसी के फ़ोन का, किसी मैसेज का, किसी के ये कहने का कि जल्दी आ जाओ, तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं। बेवकूफी और बेफिक्री से उसने अपने आसपास देखा। बेंच, लोग, बसें और उनका इंतज़ार। समझने लगा था वो।
    किसे पता था वो यहां आएगा, बैठेगा और इंतज़ार के बारे में सोचेगा। शायद यह जगह उसका इंतज़ार करती रही हो, इस बेंच को उसका इंतज़ार रहा हो। अगर न भी रहा हो तो क्या उसे इसलिए यहां नहीं होना चाहिए था कि यहां कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। वह अपनी नादानी पर हंस रहा था।
       उसे अब किसी का इंतज़ार नहीं बनना था, क्योंकि खुद भी किसी का इंतज़ार नहीं करना था। इतना मतलबी नहीं था वो कि सिर्फ लोगों का इंतज़ार ख़त्म कर उनकी ज़रूरतें पूरी करे। उसे हर उस जगह रहना था जहां वह उन लोगों को हंसी बांट सके जो परेशान हैं और जिन्हें किसी और इंतज़ार की वजह से चैन-सुकून नहीं मिल रहा। वो हर किसी के साथ था, मदद कर सकता था। उसे कोई जल्दी भी नहीं थी क्योंकि कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। अब उसका खुदका इंतज़ार भी ख़त्म हो चुका था, वो तो उसके मन में था ही नहीं। अब वो इस जगह से जाने को तैयार था, सचमुच तैयार। बढ़ते अंधेरे ने उसके मन में उजाला कर ही दिया था। चलने को तैयार, मुस्कराकर वो बेंच से उठा और पीछे मुड़कर बोला, 'सुनो! मेरा इंतज़ार मत करना।'

Saturday, 26 November 2016

मेट्रो सा मन मेरा,कुछ पल ठहरा पर चलता ही रहा


               दिल्ली में कहीं ज़मीन से ऊपर तो कहीं ज़मीन से नीचे दौड़ती मेट्रो, जिसे राजधानी की जीवन रेखा भी कहा जाता है, अपनी अलग जगह बना चुकी है। जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो सबसे ज़्यादा रोमांचक मेरे लिए मेट्रो का सफर रहा। अब यह  रोमांच मेरी ज़रुरत बन चुका है और मेट्रो मेरी दोस्त। मेट्रो से अब ऐसा लगाव हो चुका है कि खुदमें इसको ढूंढने लगा हूं। मैंने पाया है मेट्रो को.. मुझमें। 
         मेट्रो मेरा मन है, जो बस चलता ही जाता है। उसी रफ़्तार से, उसी सीधे रास्ते पर, जहां से होकर जाता है मेरी ज़िन्दगी का सफर। एक के बाद एक आनेवाले स्टेशन मेरी ज़िन्दगी के पड़ाव होते हैं और इसमें चढ़ने वाली सवारियां मेरी यादें। यादें, कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ कमज़ोर, कुछ ताकतवर, अलग-अलग तरह की ढेर सारी यादें। यूं तो हर याद सुरक्षा जांच के बाद ही मेरे मन में जगह बनाती है, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ ऐसी यादें अंदर आ ही जाती हैं जो आसपास की दूसरी यादों को भी परेशान कर देती हैं। अक्सर सोचता हूं काश! मैं खुद चुन सकता कि कौन सी याद मेरे मन में जगह बनाएगी और कौन सी नहीं। लेकिन मेरी मर्ज़ी नहीं चलती, जो याद पहले आती है जगह पाती है और मेरा हिस्सा बन जाती है। दरवाज़े बंद करके चल पड़ता है मन अगले पड़ाव की ओरक्योंकि ज़िन्दगी कभी नहीं रुकती। 


           जब मेट्रो ज़मीन से नीचे चलती है तो मन मानो शांत होता है। न यादों को बाहर की तेज़ धूप या यूं कहूं दुनिया वालों की नज़र का एहसास होता है और न फ़िक्र। जब मेट्रो सा मन लोगों की नज़र में आने लगता है और यादों को नज़र लगने का डर रहता है तो मेरी भावनाओं की ठंडक उसकी यादों को परेशान नहीं होने देती। इन यादों को सुरक्षित समेटे और समझदारी का अनाउंसमेंट सुनाते बढ़ता जाता है मन। 
              न तो मैं रुका और न ही इन यादों को कभी रोकने की कोशिश की। नई यादों को जगह देने के लिए पुरानी यादों को जगह खाली करनी ही होती है। पुरानी यादें छोड़ता चलता हूं क्योंकि कई बार यह भी ज़रूरी हो जाता है। एक पल ऐसा भी आता है कि मन की मेट्रो में यादों के लिए जगह नहीं बचती और मैं दरवाजे बंद कर लेता हूं। छोड़ देता हूं बाकी यादों को पीछे। यादों की भीड़ मुझमें जगह बनाने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन क्या करूं सारी यादें तो नहीं बटोर सकता। यह भी सोचता हूं कि शायद कोई अच्छी या फिर ऐसी याद पीछे रह गई हो जिसे मेरी ज़्यादा ज़रुरत थी। कहते हैं जो पीछे छूट जाए उसके बारे में सोचकर दुखी होने से अच्छा है कि आगे आने वाले पड़ावों से यादें साथ ले ली जाएं, मैं भी  यही करता हूं। 
                   मेट्रो की लाइनें और उनके रंग याद दिलाते हैं जिंदगी के रंगीन पहलू। लाल मेरा प्यार, पीला मेरी दोस्ती और नीला मेरा परिवार। सफर में राजीव चौक सा एक पड़ाव ऐसा भी आता है। जब ये तीनों लाइनें आपस में मिलती है और इतनी ढेर सारी यादें पास होती हैं कि उलझन सी होती है। दोस्ती, परिवार और प्यार के बीच अंतर कम हो जाता है। कई बार तो यादें भी नहीं समझ पातीं कि उन्हें दोस्ती वाली लाइन में जाना है या प्यार वाली। लेकिन इस सबसे अलग मेट्रो चलती रहती है। राजीव चौक ही क्यों न हो, यादों के पास ज़्यादा वक़्त नहीं होता, उन्हें भी पता होता है कि अगर छूट गईं तो लंबा इंतज़ार करना होगा। 
           मेरे मन की मेट्रो जैसे-जैसे आखिरी स्टॉप या यूं कहूं मेरी मंज़िल तक पहुंचती जाती है, पुरानी यादें तो पीछे छूटती चलती ही हैं, नई यादें भी कम जगह बनाती हैं। मंज़िल पर पहुंचकर मैं बिल्कुल खाली हो जाता हूं लेकिन मन का खालीपन वापस भरने का मन करता है। मैं लौटना चाहता हूं वापस उसी सफर पर, उन्हीं पड़ावों पर। समेटना चाहता हूं यादें एक बार फिर। मैं ठहरता जरूर हूं पर रुकता नहीं, क्योंकि मैं मेट्रो हूं, मन हूं। अरे हां, मेट्रो सा मन हूं।