उस शाम वो बसस्टॉप की ठंडी बेंच पर चुपचाप बैठा था। खाली, एकदम खाली। मन में ढेर सारे विचारों का गुबार सा उठ रहा था, लगातार कुछ सोच रहा था वो। उसे खुद इस बात का एहसास नहीं था कि बेंच पर बैठे एक घंटे से ज़्यादा वक़्त बीत चुका है और अंधेरा धीरे-धीरे घना होता जा रहा है। दरअसल वो खुद भी उलझा हुआ था, खुदसे ये पूछने में कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्यों। विचार आते जा रहे थे और वो किसी मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह उन्हें लात मारता जा रहा था। आखिर वह कर क्या रहा था, इस एक विचार को लात मारने ही वाला था कि रुक गया। हां! मैं क्या कर रहा हूं यहां? इतनी ठण्ड में। सामने एक बस खड़ी थी और उसकी खाली बेंच से दूर कुछ सवारियां बस के चलने के इंतज़ार में थीं। 'इंतज़ार', यहीं पर आकर आज थम गया वो। वो न तो कुछ करने आया था और न ही कुछ कर रहा था लेकिन अब उसके पास भी करने को कुछ था। ये कुछ था, इंतज़ार!
उसने इंतज़ार करने का मन बनाया। किसी बस का नहीं, किसी इंसान का नहीं, किसी सपने, किसी चीज़ का नहीं। खुद का और इन विचारों के रुकने का इंतज़ार। अब उसे बेंच पर घंटों बैठने का मकसद समझ आ रहा था, वो भी तो इंतज़ार कर रहा था। वो बस सोचता जा रहा था, शायद खुद को तसल्ली देने के लिए सबसे आसान होता है इंतज़ार। हम किसी का करते हैं और कोई हमारा। इंतज़ार करने का ख्याल मन में आता ही किसी ज़रुरत के बाद है। हमें किसी की ज़रुरत हो और वो पास न हो तो इंतज़ार शुरू हो जाता है। हमें कुछ चाहिए और मिल नहीं पा रहा, क्या करेंगे इंतज़ार के अलावा। कई बार तो हमें भी नहीं पता होता हम किसका इंतज़ार कर रहे हैं, पर एक खालीपन होता है जिसे भरने की चाहत इंसान से लंबा इंतज़ार करवाती है। इंतज़ार करना विकल्प नहीं, ज़रुरत नहीं, मज़बूरी है। किसे अच्छा लगता है एक पल भी इंतज़ार करना, पर क्या करें करना पड़ता है।
कभी सोचा है अगर इंतज़ार ही न हो तो! बेबस हो जाएगा इंसान। या तो बेचारा बन जाएगा या तो ताकतवर। तो कई बार इंतज़ार ज़िन्दगी भर का हो जाता है, कई बार ख़त्म हो जाता है। इंतज़ार जितना लंबा हो तक़लीफ़ उतनी बढ़ती जाती है। पर कोई क्या करे अगर इंतज़ार करते-करते अरसा बीत जाए और कोई न आए, क्या करना चाहिए उसे। खुद से यह कहना चाहिए कि बस अब और नहीं और ख़त्म करना चाहिए इंतज़ार, लेकिन सिर्फ तब जब खुदपर यकीन हो जाए। जब पता हो कि अब मुझे उसकी ज़रुरत ही नहीं जिसका मैं इंतज़ार करता रहा तो यही सही वक़्त है इंतज़ार ख़त्म करने का।
उसके सामने से एक के बाद एक बसें गुज़र रही थीं, क्योंकि हर स्टॉप पर लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। लोग बस का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि कोई उनका इंतज़ार कर रहा था। बेंच खाली है फिर भी कोई सवारी उसपर नहीं बैठती, इसकी वजह भी इंतज़ार है। इंतज़ार भी ऐसा जो चैन से बैठने नहीं देता, सुकून नहीं मिलने देता। बस खाली है फिर भी उन्हें जल्दी चढ़ना है जिससे उनका इंतज़ार जल्दी ख़त्म हो। इंतज़ार भी जब हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो परेशान कर देता है।
इंतज़ार करने वाले को ज़रुरत पूरी होने से ज़्यादा उसे पूरा करने वाले का इंतज़ार होता है क्योंकि अक्सर लोग यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि उस एक चीज़ के अलावा ज़रुरत पूरी करने के लिए कोई विकल्प नहीं। वो उन परेशान चेहरों को देख रहा था जिन्हें उनकी बस का इंतज़ार था, बार-बार सड़क के दूसरे छोर को देख रहे थे। किसी भी बड़ी बस को आता देख उम्मीद बांध लेते थे और पास आकर वो निराश कर जाती थी। उन्हें सिर्फ अपनी उसी बस का इंतज़ार था जो उनका इंतज़ार कर रहे दूसरों का इंतज़ार ख़त्म कर सके। सामने खड़े ऑटो को सारे ऐसे नज़रंदाज़ कर रहे थे मानों वो वहां हों ही नहीं। इंतज़ार तो उन्हें बस का था न! भूल ही गए थे वो कि शायद आधे घंटे से अपनी बस का इंतज़ार करने से बेहतर होगा ऑटो से जल्दी जाकर बाकियों का इंतज़ार ख़त्म करना।
उफ़! कितना उलझे हुए हैं सब आपस में, उसने खुदसे पूछा। अच्छा लगने लगा उसे यह सोचकर कि उसे किसी बस का इंतज़ार नहीं करना क्योंकि किसी को उसका इंतज़ार नहीं और उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं। उसकी यह खुशी अचानक फीकी पड़ गई, चेहरे का रंग उतर गया और आंखें भर आईं। कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा, क्या सच में! पिछले तीन घंटे में किसी ने नहीं पूछा कहां हो, आ जाओ न। मोबाइल की स्क्रीन भी सिर्फ वक़्त बता रही थी, कोई मैसेज नहीं था वहां। इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि किसी को उसको ज़रुरत ही नहीं। उसे गुस्सा भी आया और रोना भी, मन बना लिया कि अब इस बेंच से तब तक नहीं जाएगा जब तक कोई उसे बुलाता नहीं।
वक़्त बीत रहा था और उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। क्या सच में किसी को उसकी ज़रुरत नहीं, यह सच वो मानने को तैयार ही नहीं था। इससे पहले कि पलकों पर ठहरे आंसू बाहर आने की जगह बना पाते, अचानक वह हंस पड़ा। इस हंसी की वजह थी उसकी अपनी नादानी। इंतज़ार के बारे में सोचते-सोचते वो खुद इसके चंगुल में फंसकर गंवा बैठा था अपना चैन। वो भी तो इंतज़ार करने लगा था किसी के फ़ोन का, किसी मैसेज का, किसी के ये कहने का कि जल्दी आ जाओ, तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं। बेवकूफी और बेफिक्री से उसने अपने आसपास देखा। बेंच, लोग, बसें और उनका इंतज़ार। समझने लगा था वो।
किसे पता था वो यहां आएगा, बैठेगा और इंतज़ार के बारे में सोचेगा। शायद यह जगह उसका इंतज़ार करती रही हो, इस बेंच को उसका इंतज़ार रहा हो। अगर न भी रहा हो तो क्या उसे इसलिए यहां नहीं होना चाहिए था कि यहां कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। वह अपनी नादानी पर हंस रहा था।
उसे अब किसी का इंतज़ार नहीं बनना था, क्योंकि खुद भी किसी का इंतज़ार नहीं करना था। इतना मतलबी नहीं था वो कि सिर्फ लोगों का इंतज़ार ख़त्म कर उनकी ज़रूरतें पूरी करे। उसे हर उस जगह रहना था जहां वह उन लोगों को हंसी बांट सके जो परेशान हैं और जिन्हें किसी और इंतज़ार की वजह से चैन-सुकून नहीं मिल रहा। वो हर किसी के साथ था, मदद कर सकता था। उसे कोई जल्दी भी नहीं थी क्योंकि कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। अब उसका खुदका इंतज़ार भी ख़त्म हो चुका था, वो तो उसके मन में था ही नहीं। अब वो इस जगह से जाने को तैयार था, सचमुच तैयार। बढ़ते अंधेरे ने उसके मन में उजाला कर ही दिया था। चलने को तैयार, मुस्कराकर वो बेंच से उठा और पीछे मुड़कर बोला, 'सुनो! मेरा इंतज़ार मत करना।'
उसने इंतज़ार करने का मन बनाया। किसी बस का नहीं, किसी इंसान का नहीं, किसी सपने, किसी चीज़ का नहीं। खुद का और इन विचारों के रुकने का इंतज़ार। अब उसे बेंच पर घंटों बैठने का मकसद समझ आ रहा था, वो भी तो इंतज़ार कर रहा था। वो बस सोचता जा रहा था, शायद खुद को तसल्ली देने के लिए सबसे आसान होता है इंतज़ार। हम किसी का करते हैं और कोई हमारा। इंतज़ार करने का ख्याल मन में आता ही किसी ज़रुरत के बाद है। हमें किसी की ज़रुरत हो और वो पास न हो तो इंतज़ार शुरू हो जाता है। हमें कुछ चाहिए और मिल नहीं पा रहा, क्या करेंगे इंतज़ार के अलावा। कई बार तो हमें भी नहीं पता होता हम किसका इंतज़ार कर रहे हैं, पर एक खालीपन होता है जिसे भरने की चाहत इंसान से लंबा इंतज़ार करवाती है। इंतज़ार करना विकल्प नहीं, ज़रुरत नहीं, मज़बूरी है। किसे अच्छा लगता है एक पल भी इंतज़ार करना, पर क्या करें करना पड़ता है।
कभी सोचा है अगर इंतज़ार ही न हो तो! बेबस हो जाएगा इंसान। या तो बेचारा बन जाएगा या तो ताकतवर। तो कई बार इंतज़ार ज़िन्दगी भर का हो जाता है, कई बार ख़त्म हो जाता है। इंतज़ार जितना लंबा हो तक़लीफ़ उतनी बढ़ती जाती है। पर कोई क्या करे अगर इंतज़ार करते-करते अरसा बीत जाए और कोई न आए, क्या करना चाहिए उसे। खुद से यह कहना चाहिए कि बस अब और नहीं और ख़त्म करना चाहिए इंतज़ार, लेकिन सिर्फ तब जब खुदपर यकीन हो जाए। जब पता हो कि अब मुझे उसकी ज़रुरत ही नहीं जिसका मैं इंतज़ार करता रहा तो यही सही वक़्त है इंतज़ार ख़त्म करने का।
उसके सामने से एक के बाद एक बसें गुज़र रही थीं, क्योंकि हर स्टॉप पर लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। लोग बस का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि कोई उनका इंतज़ार कर रहा था। बेंच खाली है फिर भी कोई सवारी उसपर नहीं बैठती, इसकी वजह भी इंतज़ार है। इंतज़ार भी ऐसा जो चैन से बैठने नहीं देता, सुकून नहीं मिलने देता। बस खाली है फिर भी उन्हें जल्दी चढ़ना है जिससे उनका इंतज़ार जल्दी ख़त्म हो। इंतज़ार भी जब हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो परेशान कर देता है।
इंतज़ार करने वाले को ज़रुरत पूरी होने से ज़्यादा उसे पूरा करने वाले का इंतज़ार होता है क्योंकि अक्सर लोग यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि उस एक चीज़ के अलावा ज़रुरत पूरी करने के लिए कोई विकल्प नहीं। वो उन परेशान चेहरों को देख रहा था जिन्हें उनकी बस का इंतज़ार था, बार-बार सड़क के दूसरे छोर को देख रहे थे। किसी भी बड़ी बस को आता देख उम्मीद बांध लेते थे और पास आकर वो निराश कर जाती थी। उन्हें सिर्फ अपनी उसी बस का इंतज़ार था जो उनका इंतज़ार कर रहे दूसरों का इंतज़ार ख़त्म कर सके। सामने खड़े ऑटो को सारे ऐसे नज़रंदाज़ कर रहे थे मानों वो वहां हों ही नहीं। इंतज़ार तो उन्हें बस का था न! भूल ही गए थे वो कि शायद आधे घंटे से अपनी बस का इंतज़ार करने से बेहतर होगा ऑटो से जल्दी जाकर बाकियों का इंतज़ार ख़त्म करना।
उफ़! कितना उलझे हुए हैं सब आपस में, उसने खुदसे पूछा। अच्छा लगने लगा उसे यह सोचकर कि उसे किसी बस का इंतज़ार नहीं करना क्योंकि किसी को उसका इंतज़ार नहीं और उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं। उसकी यह खुशी अचानक फीकी पड़ गई, चेहरे का रंग उतर गया और आंखें भर आईं। कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा, क्या सच में! पिछले तीन घंटे में किसी ने नहीं पूछा कहां हो, आ जाओ न। मोबाइल की स्क्रीन भी सिर्फ वक़्त बता रही थी, कोई मैसेज नहीं था वहां। इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि किसी को उसको ज़रुरत ही नहीं। उसे गुस्सा भी आया और रोना भी, मन बना लिया कि अब इस बेंच से तब तक नहीं जाएगा जब तक कोई उसे बुलाता नहीं।

किसे पता था वो यहां आएगा, बैठेगा और इंतज़ार के बारे में सोचेगा। शायद यह जगह उसका इंतज़ार करती रही हो, इस बेंच को उसका इंतज़ार रहा हो। अगर न भी रहा हो तो क्या उसे इसलिए यहां नहीं होना चाहिए था कि यहां कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। वह अपनी नादानी पर हंस रहा था।
उसे अब किसी का इंतज़ार नहीं बनना था, क्योंकि खुद भी किसी का इंतज़ार नहीं करना था। इतना मतलबी नहीं था वो कि सिर्फ लोगों का इंतज़ार ख़त्म कर उनकी ज़रूरतें पूरी करे। उसे हर उस जगह रहना था जहां वह उन लोगों को हंसी बांट सके जो परेशान हैं और जिन्हें किसी और इंतज़ार की वजह से चैन-सुकून नहीं मिल रहा। वो हर किसी के साथ था, मदद कर सकता था। उसे कोई जल्दी भी नहीं थी क्योंकि कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। अब उसका खुदका इंतज़ार भी ख़त्म हो चुका था, वो तो उसके मन में था ही नहीं। अब वो इस जगह से जाने को तैयार था, सचमुच तैयार। बढ़ते अंधेरे ने उसके मन में उजाला कर ही दिया था। चलने को तैयार, मुस्कराकर वो बेंच से उठा और पीछे मुड़कर बोला, 'सुनो! मेरा इंतज़ार मत करना।'