Thursday, 5 January 2017

लड़की मैं हूं! लेकिन अब डरना तुम्हें चाहिए...


                        पापा मुझे बाहर कम जाने देते हैं, रात में जल्दी घर आने को कहते हैं, पार्टी करने की छूट नहीं देते, अनजान लोगों से बात करने से मना करते हैं। क्या वो मुझसे प्यार नहीं करते? वो बुरे हैं, ओपन माइंडेड नहीं हैं? नहीं! वो बहुत अच्छे हैं, मुझे आगे बढ़ने देना चाहते हैं, उड़ते हुए देखना चाहते हैं, लेकिन उन्हें रोकटोक करनी पड़ती है। पता है क्यों! तुम्हारी वजह से। सही सुना, तुम्हारी वजह से। 
                 उन्हें पता है, मैं सूट पहनकर निकलूं, टॉप पहनूं या फिर हिज़ाब... तुम्हारी तिरछी और बेशर्म नज़रें मेरी माप लेना चाहेंगी, झांकना चाहेंगी मेरे कपड़ों के अंदर, नज़रों से आगे बढ़कर छूना भी चाहोगे मुझे, क्यों? लड़की हूं इसलिए! 
हर तरफ, हर जगह, हर वक़्त तुम्हारी बेशर्मी दिखती है। क्या मुझे डरना चाहिए? झूठ नहीं बोलूंगी, डर लगता है। जितना गुस्सा आता है उससे ज़्यादा डर लगता है। कह सकती हूं कि कमज़ोर नहीं हूं, आज़ाद हूं, निडर हूं। लेकिन मुझपर लगने वाली पाबंदियों की वजह भी अपनों का यही डर है। 
                क्या मुझे इसलिए डर लगता है कि मैं लड़की हूं? नहीं! बेशर्म... डर इसलिए लगता है क्योंकि तुम इंसान नहीं रहे। पड़ोस में रहने वाले अंकल से लेकर मुझे फेसबुक पर मैसेज करने वाले अनजान शख्स तक, सब छूना चाहते हैं मुझे, खा जाना चाहते हैं। इंसान नहीं रहे हो तुम अब। हवस, बेशर्मी और अश्लीलता तुममें इस कदर भर चुकी है कि शायद अपनी मां के सूखते कपड़े देखकर भी तुम्हारा मन मचल जाता हो। मानसिकता को दोष नहीं देना, तुम भी पल्ला झाड़ लोगे। मानसिकता तुम्हें नहीं, तुम उसे वाहियात बनाते हो। चार महीने की बच्ची से लेकर 84 साल तक की बुज़ुर्ग तक सबमें तुम्हें दिखते हैं अंग। नहीं दिखती ज़िंदगी, नहीं दिखता एक मन। बस टूट पड़ना है तुम्हें, नोच लेना है मुझे। 

               कभी महसूस किया है ये डर। जब कोई बिना तुम्हारी मर्ज़ी के तुम्हें छुए, मसल जाए। सिर्फ तुम्हारा शरीर ही नहीं, मन भी दर्द से चीख उठता है। खुदसे नफरत होने लगती है, हज़ार बार धुलती हूं लेकिन वो घिनौना एहसास नहीं धुलता। शर्म नहीं आती तुम्हें, इंसान जो नहीं हो। मुंह पर शराफत का मुखौटा लगाए तुम्हें भी बस मौके की तलाश है। मैंने कुछ नहीं किया, तो पूरा बोलो न! मौका मिलेगा तो चूकूंगा नहीं। 
                 अब वक़्त तुम्हारे डरने का है। तुम्हें किसी मर्द ने नहीं जना, किसी मर्द से शादी नहीं हुई है, कोई मर्द राखी नहीं बांधता। कैसे यकीन दिलाओगे खुदको। जब तुम्हारी बेटी स्कूल जाएगी, तो तुम्हारे जैसा घिनौना टीचर खेल के नाम पर उसके कपड़ों में हाथ नहीं डालेगा। जब शाम को मां बाजार जाएगी तो उसे तुम जैसे भेड़िए दबोच नहीं लेंगे। भैया कोचिंग जा रही हूं बोलकर जाने वाली बहन को तुम्हारे जैसा हैवान गाड़ी में नहीं खींच लेगा। हर कोई तुम जैसा ही दरिंदा है अब, किस-किस से बचाओगे। अब तो डरना शुरू कर दो। 
                 ओह! तो तुम भी पाबंदियां लगा दोगे। बहन अकेले बाहर नहीं जाएगी, बेटी को पढ़ने और मां को बाजार नहीं भेजोगे। अच्छा, मर्यादा के नाम पर कितना जकड़ोगे मुझे। खुद मर्यादा का मतलब समझ सकते, तो बेहतर होता। जंज़ीरों में जकड़ा है न मुझे। अब सब ठीक रहेगा। रात में क्यों निकली, तो क्या दिन में बलात्कार नहीं होते? छोटे कपड़े क्यों पहने, तो हिज़ाब पहने लड़कियों को कोई नहीं घूरता? जवान लड़की बाहर क्यों निकली, बच्चियों और बुजुर्ग महिलाओं का रेप नहीं होता? 
                  बेवकूफ! तुम्हारी तर्कशक्ति मर चुकी है। पागल हो चुके हो तुम। मेरी ज़रुरत है न तुम्हें? अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए। तो मुझे ज़िंदा तो रखना पड़ेगा, बचाकर रखना पड़ेगा। अरे मुझे बचाने वाले भी तुम हो और नोचने वाले भी। पाबन्दी की ज़ंजीरें और कसते जाओगे। इसी डर की वजह से, जो तुमने पैदा किया है। अगर यूं ही कसती जाएंगी पाबन्दी की ज़ंजीरें तो मर जाऊंगी मैं, लेकिन मुझसे पहले तुम मरोगे। कमसे कम इस डर से तो डरो। मुझे मत बचाओ, खुद को बचाओ। वरना आओ, खा लो मुझे, नोच लो। मुझे मारो और तुम भी बदतर मौत मरो।

No comments:

Post a Comment