Monday, 19 October 2015

ढलती शाम को मेरा सलाम!

कल सुबह उगते सूरज को सलाम करते हुए मुझे उस वक़्त की याद आयी जब विश्वाकाश में आजाद भारत सूरज की तरह उदित हुआ था।
साथ ही याद आ गए मुझे वो अपने जो उस वक़्त की यादें मेरे साथ साझा करते रहे हैं। मेरे दादा जी अक्सर उस वक़्त का ज़िक्र करते हुए भावुक हो जाते हैं जब हर शाम चौपाल लगा करती थी, लोग सुख दुख में साथ थे, बाज़ारों में रौनक थी और हर चेहरे पर मासूम मुस्कान।

हर शाम उनकी कहानियाँ मुझे उस भारत की सैर करती हैं जब हर किसी को डाकिये और अपनों की चिट्ठी का इंतज़ार होता था। हर सुबह पूरा गाँव रेडियो पर समाचार सुनने बैठता था और जब भी गाँव में नौटंकी होती थी तो क्या बच्चे और क्या बूढ़े, सब पहुँच जाते थे। गलियों में तो मानों कर्फ़्यू लग जाता था।


सच कहूँ तो मुझे परियों और राजा-रानी की कहानियां सुनकर उतना मज़ा नहीं आया, जितना दादा जी के अनुभवों को सुनकर आता है। कितनी बार मन हुआ कि मैं भी उस वक़्त में जा सकूँ और अपने हाथ से मिट्टी के खिलौने बना सकूँ।
दादा जी बताते हैं कि पहले गाँव में सब एक कुएं से पानी लेने जाया करते थे, चूल्हे पर खाना बनाने के लिए उन्हें लकड़ी लेने दूर तक जाना पड़ता था। इंटरनेट और मोबाइल क्या, उस वक़्त तो गाँव में बिजली तक नहीं थी। भोलेपन में एक दिन मैंने पूछ ही लिया, तब तो ज़िंदगी बहुत मुश्किल रही होगी न दादा जी! उनके जवाब ने मुझे यह एहसास दिलाया कि आज वर्चुअल वर्ल्ड से जुडते हुए हम, खुद से कितना दूर हो गए हैं।

मेरे मासूम से सवाल के वैसे जवाब की शायद मुझे कोई उम्मीद नहीं थी। मुस्कराते हुए उन्होंने कहा, ज़िंदगी तब बहुत आसान थी बेटा! मुश्किलें तो अब पैदा हो गयी हैं। सच ही तो है, तब बाज़ार में सिर्फ चीज़ें ही नहीं, होंठों पर हंसी और सच्चे साथी भी सस्ते थे। कहने को तो हमारे पास सारी सुविधाएं हैं, लेकिन संतुष्टि और प्यार कहीं खो चुका है। फ़ेसबुक और इंस्टाग्राम पर बनावटी तस्वीरें अपलोड करते-करते हमारा प्यार, हमारा रहन-सहन सब बनावटी और बोझिल हो चला है।


इन्टरनेट की वर्चुअल दुनिया में हजारों लोगों से जुड़ा व्यक्ति यह तक नहीं जानता कि उसके पड़ोस में कौन सा नया परिवार रहने आया है। कहते हैं इन्टरनेट पर सबकुछ मिलता है, लेकिन क्या सच में! मिल सकती है वहाँ गाँव की सोंधी मिट्टी की खुशबू, कुएं का पानी या फिर नौटंकी के अनोखे बाजे की बेसुरी लेकिन मज़ेदार आवाज़। बेशक हम चैट ग्रुप्स बनाते हों, लेकिन इंटरनेट पर कोई चौपाल नहीं लग सकती।

हाथों में स्मार्टफोन्स ने मानों हमें अपना गुलाम बना लिया है। बूढ़े हो चले डाकिये पर अब चिट्ठियों का बोझ नहीं रहा, क्योंकि हमें चिट्ठियों का नहीं बल्कि एसएमएस का इंतज़ार है। यूं तो हर दूसरे पल हम अपनों की खबर ले सकते हैं, लेकिन कब कौन घर आया कौन गया, पता ही नहीं चलता। एक ही छत के नीचे रहने वाले अब एक-दूसरे से फोन पर बात करने के आदी हो गए हैं।


त्योहारों का देश कहे जाने वाले भारत में अब त्योहार कब आये और गए पता ही नहीं चलता। लगभग खत्म हो चुके मेलों में मिट्टी के खिलौनों की इक्का-दुक्का दुकानें देखी हैं मैंने, लेकिन कोई खरीददार नहीं दिखे। न तो होली पर सुरीला फाग गाने वाले रहे हैं और न सुनने वाले। डीजे और रीमिक्स का शोर उन्हें कहीं पीछे छोड़ आया है। दीपावली पर घर से ज़्यादा दीप अब लोगों की प्रोफाइल फोटो पर दिखते हैं, पटाखों के शोर में उस भारत की आवाज़ मानों दब सी जाती है, जिसकी कहानियाँ दादा जी मुझे सुनाया करते हैं।

सच कहूँ, कभी-कभी तो डर लगता है। यह तेज़ रफ्तार दुनिया हमें जहां लेकर आई है, यहाँ से आगे जाना शायद ठीक न हो। दादा जी के पास मुझे सुनाने को बहुत से अनोखे किस्से हैं, लेकिन मैं अपने पोते को क्या सुनाऊँगा! क्या इस इंटरनेट, रीमिक्स और बनावटी दुनिया की कहानी! ओह, मैं भी कितना नादान हूँ। उसके पास मुझे सुनने के लिए वक़्त ही कब होगा, एक के बाद एक नई तकनीकें उसके बचपन को शुरू होने से पहले ही खत्म कर देंगी।

हम वक़्त के साथ चलने लगे हैं या फिर शायद उससे भी तेज़। तकनीक और संचार की नई युक्तियाँ हमारी सुविधाएं बन तो रही हैं, लेकिन हमें सुकून और सच्ची खुशी नहीं दे पा रहीं। एक पल ठहरकर कुछ सोचने की ज़रूरत है, कहीं हम सब कुछ जानते हुए भी अंजान तो नहीं बन रहे। हमने अपने लिए और अपनों की भलाई के लिए जो तरक्की की, उस तरक्की ने ही हमें अपनों से दूर कर दिया है।

काश मेरे दादा जी उस आज़ाद भारत को, उस युवा सूरज को एक बार फिर महसूस कर पाते, जो बस डूबने ही वाला है। हमने आपसे आपकी छोटी सी दुनिया छीन ली दादा जी, फिर भी आपने मुझे उस भारत से मिलाया, मुझे आप पर गुमान है। आपको, इस डूबते सूरज को, ढलती शाम को और मेरे भारत को दिल से मेरा सलाम है।


Friday, 9 October 2015

"उलझन"

वक़्त की रेत पर नाम लिखने चला हूँ,
जो बन न सका अब वो दिखने चला हूँ।
उजाले को दीपक भी मैंने जलाये,
अँधेरी गली में भटकने चला हूँ।
मिला जो भी मैंने गले से लगाया,
सहारा दिया और समय से मिलाया।
जाने कहाँ रह गयी थी कमी पर,
हर किसी ने मुझे ही बुरा क्यों बनाया।

यूं तो लड़ता हूँ खुद से नयी जंग मैं भी,
भरता हूँ जीवन में कुछ रंग मैं भी,
चाहत बना हूँ कई दिलों की मैं,
पर कुछ हैं जिन्हें चाहता आज मैं भी।
सुनहरा हो कल ये इबादत नहीं है,
मिलें सारी खुशियाँ ये चाहत नहीं है।
सुनाता हूँ अपनी कहानी जो सबको,
कहते कल जो सुना था ये किस्सा वही है।

कल को उलझा हुआ अब सुलझने लगा हूँ,
वक़्त की आग में यूं सुलगने लगा हूँ।
टूटा हुआ अब मैं जुड़ने चला हूँ,
शायद मैं खुद को समझने लगा हूँ।
-: प्राणेश तिवारी

Sunday, 2 August 2015

पत्रकार जगेन्द्र का सच : हत्या या मज़ाक

          पिछले दो माह से सभी बड़े अखबारों और राष्ट्रीय न्यूज़ चैनलों की सुर्खियां रहे उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर जिले के पत्रकार जगेन्द्र सिंह’,जिनकी पुलिस ने उनके घर में ही जलाकर कथित हत्या कर दी और जिन्होंने जाते-जाते भी अपने लिए सबकी सहानुभूति बटोर ली। सुर्खियां भी कुछ यूं रहीं- पत्रकार की निर्मम हत्या, पुलिसवालों ने पत्रकार को जलाकर मारा, कलम के सिपाही की हत्या, मंत्री के खिलाफ लिखा तो पुलिस ने ली जान। मीडिया में जागेन्द्र की मौत की खबर आने के बाद से ही पुलिस की भूमिका पर सवाल उठने लगे और आरोपी मंत्री के इस्तीफे की मांग तेज़ हो चली। इंसाफ की मांग कर श्रद्धांजलि देने वाले हाथ में मोमबत्तियां लेकर सड़क पर निकल पड़े और मृत पत्रकार का परिवार भी धरने पर बैठ गया।

जगेन्द्र सिंह (फाइल)
 यूं तो मामला पुराना हो चला है और ठंडे बस्ते में जाने को है,लेकिन यह लेख सिर्फ इतना उजागर करना चाहता है कि हम कितने भोले हैं और हमें कोई कितनी आसानी से मूर्ख बना सकता है। अगर मैं यह कहूँ कि जगेन्द्र की हत्या ही नहीं हुई, बल्कि खुद को आग लगाना उसकी सोची समझी साजिश थी तो शायद आपको इस बात पर विश्वास न हो। अब कोई खबरिया चैनल इस बात को सामने नहीं लाएगा कि किस तरह कथित पत्रकार जगेन्द्र मौत को गले लगाते हुए आप सबको टोपी पहना गया।

इस बारे में ज़्यादा विस्तार से कुछ लिखूँ इससे पहले ज़रूरी है कि आपको पूरे घटनाक्रम की याद दिला दी जाये। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक एक स्वतंत्र पत्रकार के रूप में जगेन्द्र सोशल नेटवर्किंग साइट फ़ेसबुक पर उत्तर प्रदेश सरकार के अल्पसंख्यक व पिछड़ा वर्ग कल्याण मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा के खिलाफ खबरें पोस्ट कर रहे थे। जगेन्द्र के ऐसा करने से गुस्साए सपा मंत्री ने पहले तो उसके खिलाफ फर्जी मुकदमे चलवाए और फिर पुलिस को घर भेजकर उसकी हत्या करवा दी।

रिपोर्ट्स को रोचक और मसालेदार बनाने के लिए कई यहाँ तक लिखा गया कि पुलिसवालों ने घर में घुसकर तोड़फोड़ की और फिर जगेन्द्र पर पेट्रोल छिड़ककर बड़ी ही क्रूरता और निर्ममता से उसे मौत के घाट उतार दिया। आपकी तरह मैंने भी एक बार को इस बात पर विश्वास कर लिया कि इतनी बेरहमी से उसकी हत्या सिर्फ इसलिए की गयी क्योंकि उसने सच का साथ दिया। अच्छा हुआ जो यह अनूठा सच समय रहते सामने आ गया और आपको भी इससे परिचित कराने का मन बना लिया।
मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा

मीडिया रिपोर्ट्स से हटकर पर्दे के पीछे के सच्चाई कुछ इस तरह है कि कथित स्वतंत्र पत्रकार जगेन्द्र कुछ अन्य नेताओं के इशारे पर सपा मंत्री के खिलाफ पोस्ट कर रहे थे, हो सकता है इसके बदले में उन्हें कुछ लाभ भी दिया जा रहा हो। दरअसल, मंत्री राममूर्ति के खिलाफ पोस्ट करवाने वाले यह नेता उनकी लालबत्ती छीनकर खुद पद हासिल करना चाहते थे। यह सच्चाई खुद जगेन्द्र ने मौत से पहले अपने बेटे राहुल को बताई।

मौत से पहले पुलिस को दिये बयान में जगेन्द्र ने जहां कई बार यह बात दोहराई कि मंत्री राममूर्ति सिंह के इशारे पर पुलिसवालों ने मुझे जला दिया, वहीं उसके बेटे राहुल ने पूरी बात से पर्दा हटाते हुए साफ कर दिया कि पुलिस को डराने के मकसद से जगेन्द्र ने खुद आग लगाई थी जो ज़्यादा भड़क गयी और उसे बचाया नहीं जा सका। राहुल ने बताया कि जब पुलिस पापा को गिरफ्तार करने आई तो पापा ने उसे डराने के लिए खुदपर हल्की आग लगा ली, लेकिन गलती से आग भड़क उठी और उनकी मौत हो गयी।

यहाँ एक बात का ज़िक्र करना ज़रूरी है कि इस मामले में किसी तरह की आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि राहुल का यह बयान आरोपी पुलिसकर्मियों व मंत्री को बचाने के लिए सामने लाया गया हो। लेकिन जो भी हो, राहुल अपने पिता की मौत को ख़ुदकुशी बताने के साथ ही दावा कर रहा है कि उसपर किसी तरह का कोई दबाव नहीं है।

सवाल यह उठता है कि अगर राहुल को सच पता था तो उसने रिपोर्ट क्यों दर्ज़ कराई और परिवार ने सरकारी सहायता की मांग पर धरना क्यों दिया? साफ है अगर ऐसा न किया जाता तो न तो जगेन्द्र लोगों की नज़र में हीरो बन पाते और न ही परिवार को सरकार की तरफ से 30 लाख की आर्थिक सहायता और दोनों बेटों को नौकरी मिलती। आखिर नेताओं का मोहरा बन शहीद हुए जगेन्द्र अपने परिवार का भला तो कर ही गए।

अब बात आती है मीडिया में ईमानदार पत्रकार बनकर उभरे जगेन्द्र की, जिन्होंने पहले तो अपने पेशे के साथ बेईमानी करते हुए मंत्री को बदनाम करने के लिए नेताओं के इशारे पर खबरें पोस्ट कीं और बाद में अपनी गलती मंत्री राममूर्ति व पुलिस पर मढ़ते हुए दुनिया से विदा ली। मीडिया को भी मसाला कुछ यूं मिला कि बेबाक और ईमानदार जगेन्द्र की सच लिखने के चलते हत्या की गयी। हालांकि अब स्पष्ट है कि पत्रकारों व नागरिकों की सहानुभूति के पात्र बने जगेन्द्र की मौत हत्या नहीं बल्कि महज़ एक हादसा थी।
राहुल (जगेन्द्र का बेटा)

एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत विश्व में सर्वाधिक भावना प्रधान देश है, यहाँ लोग जल्दी भावुक हो जाते हैं। यही कारण है कि मीडिया कि खबरें और बॉलीवुड की फिल्में कुछ इसी अंदाज़ में तैयार की जाती हैं जो लोगों के दिल को छू जाएँ। मीडिया में अथवा सोशल साइट्स पर आने वाली ऐसी खबर को देखते ही हमारी तर्क-शक्ति भावनाओं के आगे बौनी साबित होती है। एक पल में हम किसी को राष्ट्रीय नायक मान बैठते हैं तो किसी को अपराधी।


आवश्यक है कि हम एक तार्किक दृष्टिकोण विकसित करें और किसी भी खबर या वायरल चित्र की सत्यता को परखने के बाद ही उसपर विश्वास करें। अगर आपमीडिया व सोशल साइट्स की सभी खबरों पर आँख मूँद कर यूं ही भरोसा करते रहे, तो न जाने कितने जगेन्द्र आपको टोपी पहना जाएँगे और आपको पता भी नहीं चलेगा। 

Thursday, 30 July 2015

फांसी को लेकर तकरार, क्या खत्म होनी चाहिए मौत की सज़ा!

        किसी दुर्लभ से दुर्लभतम अपराध के लिए भारतीय दंड संहिता में सबसे बड़ी सज़ा है, मृत्युदंड। गुरुवार को 1993 के मुंबई सीरियल बम धमाकों के मास्टरमाइंड याक़ूब मेनन को फांसी की सज़ा होने के बाद भी इससे जुड़ी बहस जारी है। एक पक्ष याक़ूब की फांसी को गलत तो दूसरा सही ठहरा रहा है। कई विशेषज्ञों का मानना है कि मानवाधिकारों को ध्यान में रखते हुए देश की दंड संहिता से फांसी या मृत्युदंड को हटा देना चाहिए क्योंकि हम इतने क्रूर नहीं हो सकते कि खून के बदले खून की नीति पर न्याय करें।


देश में आज़ादी के बाद से अबतक 169 अपराधियों को फांसी पर के तख्ते पर चढ़ाया जा चुका है और  पिछले 21 साल में आठ आतंकियों को फांसी दी गई है। दुनिया में अक्सर मानवाधिकारों से जुड़े लोग फांसी की सज़ा को खत्म करने की मांग उठाते रहे हैं और लगभग 140 देश मौत की सज़ा खत्म कर चुके हैं। भारत उन कुछ चुनिन्दा देशों में से एक है, जहां अब भी मृत्युदंड का प्रावधान है। 


भारत नागरिक व राजनीतिक अधिकारों से जुड़ी एक अंतरराष्ट्रीय संधि पर सहमति जता चुका है, जिसमें सदस्य देशों से मौत की सज़ा को खत्म करने के लिए ज़रूरी कार्रवाई करने के निर्देश दिये गए थे। लेकिन भारतीय दंड संहिता में आज भी बदलाव नहीं किया जा सका है और यही वजह है कि सामाजिक बहस व विरोध के बावजूद भी याक़ूब को तय समय पर फांसी के फंदे पर लटका दिया गया।

 18वीं सदी के यूरोप ने मौत की क्रूर सज़ा को खत्म करने की पहल की थी। इसके अलावा द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी समेत कई अन्य देशों ने फांसी की सज़ा को खत्म करने का निर्णय लिया था। वर्तमान समय में भी पूरे विश्व में अनेक गैर सरकारी संगठन मौत की सज़ा को खत्म करने पर ज़ोर दे रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने भी 2007 में विश्व के देशों से मृत्युदंड को रोकने की अपील की थी।

अगर हम मानवीय पहलू की बात करें तो अगर हमें किसी को जीवन देने का अधिकार नहीं तो किसी की जान लेने का अधिकार भी नहीं होना चाहिए। यदि मृत्युदंड ही सबसे बड़ी सज़ा होता तो आतंकी जान हथेली पर रखकर खुद मौत के मुंह में हमला करने न आते। सच तो यह है अब आतंक को मौत का खौफ भी नहीं रहा, ऐसे में ज़रूरी है कि इससे भी बड़ी सज़ा दी जाए। मौत का विकल्प यह सज़ा भले ही क्रूर न हो लेकिन आतंकियों और अपराधियों के हौसले ज़रूर पस्त कर दे। पहले भी नारे लगते रहे हैं, 

सज़ा दो-मौत नहीं! 


Monday, 15 June 2015

हत्यारोपी विधायक का साथ दे रही सपा, इस मामले में तो बसपा लाख गुना अच्छी

उत्तर प्रदेश की राजनीति में दो बड़ी पार्टियों की साख है, पहली सत्तारूढ़ सपा और दूसरी बसपा। लेकिन अगर गुंडागर्दी को लेकर इनके रवैये की बात की जाए तो बसपा का पलड़ा भारी भारी नज़र आता है। जहां बसपा प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती अपने दागी विधायकों पर कार्रवाई करने में कहीं आगे थीं वहीं पिछले कई दिनों से सुर्खियों में बने पत्रकार जागेन्द्र सिंह हत्याकांड में आरोपी सपा विधायक व राज्यमंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं हुई, यहाँ तक कि वह अपने पद पर अब तक काबिज हैं। यह तो सिर्फ एक बानगी है, पार्टी के कई विधायकों के बड़बोले होने के बावजूद सपा कोई कार्रवाई करती नहीं दिखती। ऐसा न हो कि इस सुस्त रवैये के चलते अगले विधानसभा चुनाव में उसे मुंह की खानी पड़े।
उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर में एक स्वतंत्र पत्रकार जागेन्द्र सिंह को जलाकर हत्या का मामला सामने आया था, जिसमें परिजनों ने राज्यमंत्री के खिलाफ नामजद प्राथमिकी दर्ज कराई थी। मौत से पहले पत्रकार ने भी अपने बयान में घटना को मंत्री की साजिश बताया था। पिछले कई दिनों से खबरिया चैनलों और अखबारों में छाई सुर्खियों और मंत्री की गिरफ्तारी की मांग के बावजूद भी न तो गिरफ्तारी हुई न ही कोई पूछताछ। हैरानी की बात तो यह है कि पार्टी ने मंत्री को उनके पद से भी नहीं हटाया और अब उनकी वकालत में लगी है।
विवादों की सूची में कई अन्य बड़े नेता हैं जिनके खिलाफ पार्टी का रवैया उदासीन है। बात पिछले दिनों तोताराम यादव के महिलाओं के खिलाफ दिये गए बयान की हो या फिर कैलाश चौरसिया के रंगदारी न देने पर मारपीट करने की, इस मामले में तो प्राथमिकी तक दर्ज न हो सकी और न ही पार्टी ने कोई प्रतिक्रिया दी। साथ ही पूर्व राज्यमंत्री इकबाल को बाराबंकी टोल प्लाज़ा पर की गई गुंडई के मुकदमे में नामजद तक नहीं किया गया। मतरियों और दबंगों की गुंडागर्दी से परेशान लोगों की ओर ध्यान न देकर सपा अपने मंत्रियों का बचाव कर रही है। यहाँ तक कि मुख्यमंत्री को पार्टी की खराब होती छवि की भी कोई चिंता नहीं है।
इस मामले में पिछली बसपा सरकार और पूर्व मुख्यमंत्री मायावती को काफी सख्त माना जाता था। हो भी क्यों न, बसपा सुप्रीमो ने हर दागी विधायक को जेल पहुंचाया था भले ही वह कितना करीबी क्यों न रहा हो। मायावती ने तो तत्कालीन बसपा सांसद उमाकांत यादव को अपने घर बुलाकर गिरफ्तारी कारवाई थी। आपराधिक मुकदमों में आरोपी तत्कालीन खाद्यमंत्री आनंद सेन, पीडबल्यूडी मंत्री शेखर तिवारी, मतस्य विकास मंत्री यमुना निषाद जैसे दागियों को जेल भेजने के साथ ही सरकार ने खुद इनके खिलाफ केस लड़ा था। तत्कालीन बांदा विधायक पुरुषोत्तम नरेंद्र दिवेदी और बुलंशहर के विधायक गुड्डू पंडित को भी पार्टी प्रमुख ने जेल पहुंचाया था। यही वजह थी कि पार्टी प्रमुख के रवैये से दागी थरथर कांपते थे।

लेकिन वर्तमान समय में सत्तारूढ़ सपा दागियों का साथ क्यों दे रही है, इसका सीधा जवाब यह है कि कई दबंग विधायकों के साथ पार्टी का जातिगत वोट बैंक जुड़ा है। ऐसे में उनके खिलाफ कार्रवाई वोट बैंक को कमजोर कर सकती है। लेकिन मुख्यमंत्री को यह भी समझना होगा कि दागियों पर कार्रवाई न करने से खराब होती पार्टी की छवि भी आगामी विधानसभा चुनाव में सपा की नैया डुबो सकती है। 

Tuesday, 19 May 2015

एक साल की हुई भाजपा सरकार, बनारस को अब भी मोदी का इंतज़ार

       गंगा के तट पर बसी पावन नगरी वाराणसी ने पिछले साल जब देश का प्रधानमंत्री चुनकर भेजा तो ऐसा लगा कि गंदगी और बदहाली की शिकार वाराणसी को एक नयी पहचान मिलेगी। विकास और अच्छे दिनों की आस में वाराणसी की जिस जनता ने अपना भावी प्रधानमंत्री चुना था, मोदी सरकार के एक साल पूरे होने के बाद अब उन चेहरों पर निराशा साफ देखी जा सकती है। आलम यह है कि बुनकरों की हालत हो या सीवर की समस्या, इन मुद्दों पर सुधार की बातें सिर्फ एक छलावा महसूस हो रहीं हैं।
   नवंबर में वाराणसी के दौरे पर आए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुनकरों की हालत सुधारने की बात करते हुए बनारसी साड़ियों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाने का वादा किया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि गुजरात के कुछ उद्योगपति अपनी अत्याधुनिक मशीनें बनारस में लेकर आ रहे हैं लेकिन महंगी होने की वजह से यह बुनकरों की पहुँच से दूर हैं। सफाई का मुद्दा बनारस में हमेशा से ही उठाया जाता रहा है। लोगों की मानें तो शहर में लगभग 2000 जगहों पर मेनहोल खुले पड़े हैं, जिससे दिन हो या रात यहाँ से गुजरना मुश्किल है। स्थानीय लोगों को तो अब इस गंदगी व दुर्गंध की आदत पड़ चुकी है। कूड़े के निस्तारण के लिए कम से कम 10 प्लांट लगाए जाने की आवश्यकता है, जबकि यहाँ करसड़ा में बना एकमात्र प्लांट भी बंद पड़ा है।
     मोदी सरकार के एक साल की बात पर काशी हिंदू विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर और जाने-माने कथाकार डॉ. काशीनाथ सिंह कहते हैं कि अच्छे दिनों की आस में बैठे लोग इंतज़ार करते रह गए और अब तक कुछ नहीं हुआ। बनारस को जापान के क्योटो जैसा बनाने के दावे किए जा रहे हैं लेकिन सच तो यह है कि इसका कोई खाका तैयार नहीं हो सका है। बनारसी साहित्यकार काशीनाथ का मानना है कि काशी बदलाव बहुत मुश्किल से स्वीकार करती है क्योंकि यहाँ की संस्कृति किसी प्रतिकूल बदलाव को स्वीकार करने की अनुमति नहीं देती। काशीनाथ ने भाजपा के घर वापसी अभियान पर भी व्यंग्य करते हुए कहा कि मोदी सरकार के कार्यकाल में धार्मिक कर्मकांड ज़रूर बढ़ा है। चुनाव के दौरान मोदी का समर्थन करने वाले मठाधीशों का भी मानना है कि इस एक वर्ष में मोदी सरकार का भी वाराणसी की ज़मीन पर नहीं उतरा है और जनप्रतिनिधि दुनिया में घूमकर सेल्फी लेने में व्यस्त हैं।
  बनारस के घाट, शाम को होने वाली आरतियाँ और मंदिर के घंटों की आवाज़ सब कुछ अब भी पहले जैसा है, लेकिन काशी के लोगों के मन में विकास और सुधार की उम्मीद धुंधली पड़ती नज़र आ रही है। जो भी हो, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथों में अपना भविष्य देख रही काशी को अब भी मोदी का इंतज़ार है। 

Thursday, 16 April 2015

सशक्त हूँ क्योंकि महिला हूँ

                    भारत देश के विकास में महिलाओं का हमेशा से ही महत्वपूर्ण स्थान रहा है। वर्तमान परिपेक्ष्य में लोकसभा स्पीकर के रूप में दूसरी महिला सुमित्रा महाजन, अंतरिक्ष मे उड़ान भरती सुनीता विलियम्स, बैडमिंटन में साइना नेहवाल तो टेनिस में सानिया मिर्ज़ा, उद्योग के क्षेत्र में पहचान बना चुकी इन्दिरा नूई हों या चंदा कोचर, अगर हम इन प्रभावशाली महिलाओं की बात करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि भारत मे महिलाओं कि स्थिति में पहले से काफी सुधार आया है। आज महिलाओं को हर क्षेत्र मे आजादी और समता दी गयी है। चाहे रोजगार की बात हो या शादी की, अब महिलाएं अपनी पसंद का चुनाव करने के लिए स्वतंत्र हैं। एक वक़्त अबला कही जाने वाली नारी अब कमजोर नहीं रही, असोम जैसे पिछड़े क्षेत्र से बॉक्सिंग में ओलंपिक पदक लाने वाली मैरीकॉम इसका उदाहरण हैं। समाज के लगभग हर तबके में अब महिलाओं को समान अधिकार दिये जाने की बात की जा रही है, साथ ही महिला और बाल विकास मंत्रालय द्वारा महिलाओं के लिए बाल विकास योजना, सूचना किशोरी शक्ति योजना और किशोरियों के लिए पोषण कार्यक्रम जैसी कितनी ही योजनाएँ चलायी जा रही हैं। एक वक़्त था जब महिलाओं का काम घर मे रहकर सिर्फ चूल्हा बर्तन करना ही था, जबकि आज वो पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलकर चल रही हैं। कभी चहारदीवारी के अंदर पर्दे में रहने वाली महिलाएं आज पुरुषों को चुनौती देकर अपनी काबिलियत का लोहा मनवा रही हैं। हर वर्ष आने वाले प्रतियोगी परीक्षाओं के नतीजें हों या फिर उद्योग के क्षेत्र मे बड़े नाम, महिलाओं ने हर क्षेत्र में बाज़ी मारी है।
         
 लेकिन एक कड़वा सच यह भी है कि महिलाओं की ये चुनौती पुरुष वर्ग को गवारा नहीं है। महिलाओं के योग्य प्रबंधन को पुरुष अपने लिए घातक मान बैठे हैं। महिलाओं का उनसे अधिक योग्य होना और ऊंचे पदों पर बैठना पुरुषों के लिए अपमानजनक साबित हो रहा है। महिला सशक्तीकरण के मुद्दे पर की जाने वाली बातों की एक बानगी देखिये, एक ओर तो महिलाओं को देवी मानकर पूजा जाता है और दूसरी ओर महिलाओं के साथ अपराधों में भी बढ़ोत्तरी हुई है। आज के समय मे भी लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर मात्र 921 महिलाओं का है। इससे स्पष्ट होता है कि भ्रूण हत्या जैसे घिनौने अपराध आज भी जारी हैं, पिछले गणतन्त्र दिवस पर प्रधानमंत्री कि भ्रूण हत्या रोकने कि अपील को एक बड़े कदम के रूप मे देखा जा रहा है। सरकार का बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ मिशन भी ज़ोरों पर है, लेकिन आंकड़ो पर नज़र डालें तो वर्तमान समय में महिला और पुरुषों की साक्षरता दर में पूरे बीस प्रतिशत का अंतर देखने को मिलता है। भारत में हर 34वें मिनट एक महिला रेप का शिकार होती है, हर 42वें मिनट यौन उत्पीड़न का दंश झेलती है, हर 43वें मिनट एक महिला का अपहरण होता है, हर 93 मिनट में एक महिला की हत्या कर दी जाती है और हर 103वें मिनट एक महिला दहेज के नाम पर बलि चढ़ा दी जाती है। 1993 से 2010 के बीच महिला अपराधों में आश्चर्यजनक रूप से 150 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसका कारण है कि महिलाओं को मिल रही स्वतन्त्रता को पुरुष वर्ग हजम नहीं कर पा रहा। कई बार इसके लिए भी महिलाओं को दोषी ठहरा दिया जाता है और उन्हे संभलकर रहने की सलाह दी जाती है। कागज़ पर चलाई जा रहे जागरूकता कार्यक्रमों को आईना दिखने के लिए ये आंकड़े पर्याप्त हैं। अब आवश्यकता है इन योजनाओं को कागजों से उतारकर जमीनी हक़ीक़त मे बदलने की।
    पुरुषप्रधान समाज में महिलाओं को मिल रही आज़ादी को सामाजिक मर्यादाओं के उल्लंघन के रूप में देखा जा रहा है। जहां महानगरों में रहने वाली महिलाएं अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं, वही ग्रामीण परिवेश अब भी बेटी को पराया धन और बोझ मानकर चल रहा है। खाप पंचायत के महिलाओं को मोबाइल न देने और जीन्स पहनने की मनाही को लेकर किए गए फैसले पुरुष प्रधान समाज की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि अविवाहित महिलाओं के पास मोबाइल मिलने पर पाँच हज़ार तो विवाहित महिलाओं को दो हज़ार जुर्माना भरना होगा। ये अनावश्यक प्रतिबंध स्पष्ट करते है कि पुरुषों का एक बड़ा तबका महिलाओं को मिल रही वैचारिक आज़ादी से बौखलाया हुआ है। उन्हें अपने अस्तित्व पर खतरा मंडराता दिख रहा है। मर्यादाओं और रूढ़ियों के नाम पर महिलाओं को हमेशा से ही दबाकर रखने वाला यह तबका आज सामाजिक कुरीतियों कि पैरवी कर रहा है और महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों के लिए भी उन्हें ही जिम्मेदार ठहरा रहा है। ऐसी विषम परिस्थितियों में भी महिलाएं आवाज़ उठा रही हैं और अपने हक़ के लिए लड़ रही हैं। बात चाहे नोबल पुरस्कार विजेता मलाला युसुफ़जई की हो या अफगानिस्तान की पहली टैक्सी ड्राईवर सारा बहाई की, इन महिलाओं ने ना सिर्फ आवाज़ उठाई बल्कि खुद को साबित भी किया। प्रिया झींगन, अंजलि गुप्ता और पुनीता अरोरा जैसी महिलाओं ने भारतीय सेना में भी महिलाओं की दावेदारी पेश की और साबित किया कि शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोर समझी जाने वाली महिलाएं भी दुश्मन को बराबर कि टक्कर देने का माद्दा रखती हैं। महिलाओं की आवाज़ को दबाने की सभी  कोशिशें नाकाम हुई हैं क्योंकि आज की महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ना जानती हैं, वो ना सिर्फ स्वयं जागरूक हैं साथ ही दूसरी महिलाओं को भी जागरूक कर रही हैं। ये कहना ज़रा भी गलत ना होगा कि महिला सशक्तीकरण के लिए किए जाने वाले कामों और अभियानों कि कागजी और जमीनी सच्चाई में ज़मीन आसमान का अंतर है। ग्रामीण परिवेश में रहने वाली महिलाओं को सही मायनों में जागरूक करने कि आवश्यकता है, क्योंकि वो आज भी अपने अधिकारों से अनजान हैं और अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों को सहने को विवश हैं। यदि इन क्षेत्रों में महिला सशक्तीकरण को बढ़ावा दिया जाये तो दहेज, घरेलू हिंसा और महिला उत्पीड़न जैसे अपराधों पर अंकुश लगाया जा सकता है। महिलाओं के साथ होने वाली छेड़छाड़ और बलात्कार जैसे अपराध पुरुष वर्ग की विकृत मानसिकता के परिचायक हैं, जिन्हें रोकने के लिए सामाजिक सुधार जरूरी है।
    सकारात्मक पहलू की बात करें तो आज के युवाओं में लिंगभेद जैसी कोई भावना नहीं है। गैरजिम्मेदार समझे जाने वाले युवाओं को अपनी ज़िम्मेदारी का पूरा एहसास है, वो एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करना जानते है। आज का युवा लड़के और लड़की मे भेदभाव नहीं करता, उसे मालूम है कि महिला और पुरुष एक ही गाड़ी के दो पहियों की तरह हैं और इन दोनों का साथ चलना जरूरी है। परिवार मे जितना महत्व पुरुष का है उतना ही स्त्री का भी क्योंकि कहा जाता है की नारी घर की लक्ष्मी होती है। आज की लक्ष्मी तो घर और ऑफिस दोनों संभालने में सक्षम है, इसलिए उसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। मर्यादाओं और संस्कृति के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का हनन करने वाले समाज के ठेकेदारों को सोच लेना चाहिए कि आज का युवा किसी की बातों में आकर अपना अहित करने वालों मे से नहीं है, उसे सही और गलत का भान है और पता है कि उसे क्या करना चाहिए। राजधानी दिल्ली में हुए निर्मम दामिनी हत्याकांड के बाद युवाओं का आक्रोश पूरे विश्व के लिए सुर्खियां बना था। उस अपार आंदोलन मे ना तो कोई नेतृत्व था और ना ही कोई रणनीति, थे तो केवल युवा। जहां सोशल मीडिया एक मंच बना और दिल्ली रण। युवाओं ने जता दिया कि महिला सुरक्षा के मुद्दे पर सभी एकजुट हैं और आनन फानन में महिला सुरक्षा संबंधी नए कानून बना दिये गए। महिलाओं के पास सबसे बड़ा हथियार है सोशल मीडिया और नए संचार माध्यम, इनकी सहायता से वो अपनी सफलता के रास्ते मे आने वाली हर रुकावट से उबरकर खुद को साबित कर सकती हैं। अच्छी बात यह भी है कि अब महिलाओं को किसी के सहारे की जरूरत नहीं होती, वो खुद दूसरों का सहारा बनने का दम रखती हैं।    
कल एक महिला को कहते सुना, लोग हमें ही दोष देते हैं, लेकिन दोष हममें नहीं उनकी मानसिकता में है। मुझमें कोई कमी नहीं, कमी उन सबमें है जो मुझे दोष देकर अपने दामन को साफ बताते हैं। मैं सशक्त हूँ क्योंकि महिला हूँ। सुधारना है तो खुदको सुधारो और अपनी मानसिकता बदलो। यही तो है वो भारत देश जहां कहते हैं- 
                            यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता। 

Friday, 20 March 2015

खिलौना - प्राणेश तिवारी

   
कितने अच्छे थे वो दिन जब हम छोटे थे,
कोई चाहत हो तो जानबूझकर रोते थे।
चन्द खिलौनों में सिमटी थी हमारी दुनिया,
बहलाकर उनसे मन मिलती थी खुशियां।
वक्त के साथ चलना जमाने ने सिखा दिया,
सच कहूं तो मुझे ही एक खिलौना बना दिया।

जिसने भी चाहा खेल लिया,
भर गया जो मन तो फेंक दिया।
कुछ कदम चले मेरे साथ रहे,
अगले पल मुझको छोड़ दिया।
बचपन का रोना क्या भूले,
दुनिया ने मुझको रुला दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।

जब कोई खिलौना टूट जाता था,
मैं ऊपरवाले से रूठ जाता था।
अब रोज टूटता हूं पर उठ जाता हूं,
रोता है दिल फिर भी मुस्कराता हूं।
हर किसी के हैं यहां दो चेहरे,
मुझको भी मुखौटा लगा दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।

अक्सर मेरे खिलौने खो जाया करते थे,
सपनों में भी याद आया करते थे।
उन खिलौनों की तरह मैं भी खोया हूं कहीं,
पर मुझे याद करने वाला यहां कोई नहीं।
‘प्राणेश‘ को तुम सब याद रहे,
फिर तुम सबने क्यों भुला दिया,
मुझे एक खिलौना बना दिया।
     - प्राणेश तिवारी

Wednesday, 18 March 2015

Meri Kahani

                      सच कहूं तो ये मेरी ही कहानी है, आज जब रहा न गया तो आपसे कहने का मन बना लिया। एक इन्सान जो हर किसी को खुश देखना चाहता है और हमेशा कोशिश करता है कि कभी किसी का दिल न दुखाये, वो क्यों खुश नहीं रह पाता? शायद आपको लगे इसमें जरूर उसकी ही कोई गलती होगी। लेकिन आज मैं आपको एक सच से रूबरू करवाता हूं। किसी और के कहने से शायद मैं न मानता लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने यह अनुभव किया है। अजीब लगता है यह कहना कि आज की दुनिया अच्छे लोगों के लिए बहुत बुरी है। कहां से शुरू करुं, कुछ समझ नहीं आ रहा। सबने हमेशा कहा कि अच्छा सोचो तो अच्छा होगा, मैंने किया। अच्छा तो नहीं लेकिन ऐसा कुछ हुआ जिसकी मुझे तो उम्मीद नहीं थी। दूसरों को मौके देना, समझौते करना, अच्छी ही तो बात है। लेकिन कैसा लगता है जब जिनके लिए आप समझौते करें, उन्हें आपसे कोई मतलब ही न रहे। आज काम बना और कल को सारे गायब। ऐसा होना कोई बड़ी बात नहीं क्योंकि मैंने लोगों को अक्सर कहते सुना है कि यह दुनिया बहुत मतलबी है। इसके बाद मैंने लोगों को माफ करने की आदत डाल ली, सुना था माफ करने से गलती करने वाले को पछतावा होता है। माफ करने से बड़ी दूसरी कोई सजा नहीं। जमाना कुछ यूं बदला है कि आप माफ करते रहें, लोग जानबूझकर गलतियां करते रहेंगे। आज माफ करने वाला कमजोर समझा जाता है। आपको गाली देकर जाने वाले को आप माफ करिये, अगली बार फिर गाली खाने को मिलेगी। कहानियों वाले आदर्श अब ढूंढने से भी नहीं मिलेंगे। सब कुछ आजमाकर देखा, खुद को बदलकर देखा, लेकिन अपने आदर्शों से समझौता नहीं कर पाया। सबको लगता है मैं पुराने जमाने का हूं, कहीं पीछे रह गया हूं, जमाने के साथ आगे नहीं बढ़ पाया। सच ही तो है, मैं झूठ बोलना, धोखा देना, बेईमानी करना जो नहीं सीख सका। जमाना तो इसमें कहीं आगे निकल चुका है न। क्या यह मेरी गलती है? कुछ करना चाहता हूं तो मेरे ही चार साथी मुझे ढकेलकर पीछे कर देते हैं। मैं सबके साथ चलना चाहता हूं लेकिन वो मुझसे आगे निकलने को बहादुरी मानते हैं। मुझे पीछे करना, दबाना, जाने क्या मिलता है इसमें। मैंने खुद को सीमाओं में कभी नहीं बांधा, तो क्यों सब मेरी सीमायें तय कर रहे हैं? मैं उड़ना चाहता हूं तो मेरे पंख कतर दिये जाते हैं। मुझे पिंजरे में बंद करने की कोशिश बेकार है क्योंकि मैंने कभी किसी को मेरे फैसले लेने का हक नहीं दिया। अब मैं थक चुका हूं इस सब से, क्या करुं कुछ समझ नहीं आता। कभी-कभी सो तक नहीं पाता, लेकिन हर सुबह इसी उम्मीद से उठता हूं कि आज जरूर कुछ अच्छा कर सकूंगा। क्या करुं, आप सबके सामने बहुत छोटा हूं। चलना सीख रहा हूं, ठोकरें तो लगेंगी ही। एक बात तो तय है, न तो मैं खुद को बदलूंगा और न ही हार मानूंगा। बचपन से ही जि़ददी हूं न। उम्मीद करता हूं मेरी कहानी का अन्त इस शुरूआत की तरह बोझिल नहीं होगा।