हेडलाइट्स की रोशनी मुझे सोने नहीं देती, गाड़ियों की आवाज की तो ऐसी आदत पड़ चुकी है कि एहसास ही नहीं होता लेकिन हेडलाइट्स की चमक मेरी पलकों के उस पार ऐसे रंग भरती है जैसे मेरी जिंदगी ने कभी नहीं भरे। फुटपाथ पर करवट बदलते कब सुबह हो जाती है पता ही नहीं चलता। अक्सर खुद से पूछती हूं मेरी जगह फुटपाथ पर क्यों! क्या सिर्फ इसलिए कि ऊपरवाले ने मेरे दोनों हाथ मुझसे छीन लिए, या फिर इसलिए क्योंकि मैंने अपनी किस्मत के आगे घुटने टेक दिए। नहीं! मैंने अपनी किस्मत को कभी अपनी ज़िन्दगी नहीं माना। दिन बीतते गए, आसपास सब बदलता गया लेकिन मेरी हालत वही रही,'भिखारन'। पहले भिखारन बच्ची और अब भिखारन लड़की।
मैंने सिर्फ एक रिश्ता देखा और समझा, जिसे सब नाम देते हैं 'मां'। मैं तो अम्मा कहती थी, खूब बात करती थी उससे। अम्मा के पास मेरे हर सवाल का जवाब होता था। हां, मैंने अम्मा से एक सवाल कभी नहीं पूछा कि मेरे पास हाथ क्यों नहीं हैं? वो उदास हो जाती थी जब भी कोई बात मेरे अधूरेपन को लेकर होती. उसने कभी मुझे अधूरा नहीं रहने दिया, एहसास दिलाती रही कि मैं अधूरी नहीं हूं. अदूरेपन के एहसास को छिपाया जा सकता है लेकिन झुठलाया नहीं जा सकता. मेरी मां सिग्नल पर रुकने वाली गाड़ियों के सामने हाथ फैलाती तो मैं वैसा भी न कर पाती, बस अम्मा के साथ रहती थी. मुझे देखकर लोगों के मन में आने वाली दया चंद सिक्कों में सिमटकर मां के हाथ पर खनक पड़ती थी. कुछ ऐसे मेरा बचपन बीत और बदलते वक़्त ने मेरी मां को बूढ़ा और मुझे जवान कर दिया, मेरा अधूरापन अब मुझे और भी सताने लगा. मां कमज़ोर हो चली थी और सिग्नल पर गाड़ियों के रुकने पर ढोलक बजाती थी. मैंने भी कुछ करतब सीख लिए थे, मेरे पैर मेरे हाथों की कमी पूरी करने लगे थे। मैंने गाड़ियों को रुकते देखा है, ये लंबी गाड़ियां मेरे करतब से ज़्यादा उस अनोखे जीव को देखने के लिए रूकती थीं जो बिना हाथों के भी पैर से हवा में रंग उकेरता था। मैं जैसे जैसे बढ़ रही थी, गाड़ियों में बैठे लोग नीचे गिरते जा रहे थे। काश मैं बच्ची ही रहती, तब लोगों की आंखों में जो दया थी उसकी जगह अब कुछ और दिखने लगा था। मासूम नहीं रही थी न मैं, समझने लगी थी। तेजी से बीतते वक़्त और उसके साथ बदलती नज़रों के बीच एक हादसा हुआ। मेरे अधूरेपन का एहसास मुझे उस रोज हुआ जब मैंने सबकुछ गंवा दिया। उस दिन अम्मा मेरे साथ सड़क पार कर रही थी। हमेशा की तरह मैं आगे चल रही थी और वो पीछे। पहला कदम फुटपथपर पड़ने के साथ ही जाने कैसे उसका पैर फिसल गया। जब मैं पीछे मुड़ी तो मैंने अम्मा को गिरते हुए देखा और अगले ही पल पीछे से आ रहे ट्रक ने उसे टक्कर मार दी। तेज़ रफ़्तार ने एक झटके में मेरी छोटी सी दुनिया ख़त्म कर दी। मुझे अच्छे से याद है, अम्मा ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया था। यह जानते हुए भी कि मैं उसका हाथ नहीं थाम सकती, उस पल उसका हाथ मेरी ओर बढ़ा था। मैं कुछ नहीं कर पाई सिवाय रोने और चीखने के। पुलिस उसकी लाश उठाकर ले गई। क्यों , कहां, पता नहीं। छोड़ गई मुझे, मेरे घर, उसी फुटपाथ पर।
मैंने सिर्फ एक रिश्ता देखा और समझा, जिसे सब नाम देते हैं 'मां'। मैं तो अम्मा कहती थी, खूब बात करती थी उससे। अम्मा के पास मेरे हर सवाल का जवाब होता था। हां, मैंने अम्मा से एक सवाल कभी नहीं पूछा कि मेरे पास हाथ क्यों नहीं हैं? वो उदास हो जाती थी जब भी कोई बात मेरे अधूरेपन को लेकर होती. उसने कभी मुझे अधूरा नहीं रहने दिया, एहसास दिलाती रही कि मैं अधूरी नहीं हूं. अदूरेपन के एहसास को छिपाया जा सकता है लेकिन झुठलाया नहीं जा सकता. मेरी मां सिग्नल पर रुकने वाली गाड़ियों के सामने हाथ फैलाती तो मैं वैसा भी न कर पाती, बस अम्मा के साथ रहती थी. मुझे देखकर लोगों के मन में आने वाली दया चंद सिक्कों में सिमटकर मां के हाथ पर खनक पड़ती थी. कुछ ऐसे मेरा बचपन बीत और बदलते वक़्त ने मेरी मां को बूढ़ा और मुझे जवान कर दिया, मेरा अधूरापन अब मुझे और भी सताने लगा. मां कमज़ोर हो चली थी और सिग्नल पर गाड़ियों के रुकने पर ढोलक बजाती थी. मैंने भी कुछ करतब सीख लिए थे, मेरे पैर मेरे हाथों की कमी पूरी करने लगे थे। मैंने गाड़ियों को रुकते देखा है, ये लंबी गाड़ियां मेरे करतब से ज़्यादा उस अनोखे जीव को देखने के लिए रूकती थीं जो बिना हाथों के भी पैर से हवा में रंग उकेरता था। मैं जैसे जैसे बढ़ रही थी, गाड़ियों में बैठे लोग नीचे गिरते जा रहे थे। काश मैं बच्ची ही रहती, तब लोगों की आंखों में जो दया थी उसकी जगह अब कुछ और दिखने लगा था। मासूम नहीं रही थी न मैं, समझने लगी थी। तेजी से बीतते वक़्त और उसके साथ बदलती नज़रों के बीच एक हादसा हुआ। मेरे अधूरेपन का एहसास मुझे उस रोज हुआ जब मैंने सबकुछ गंवा दिया। उस दिन अम्मा मेरे साथ सड़क पार कर रही थी। हमेशा की तरह मैं आगे चल रही थी और वो पीछे। पहला कदम फुटपथपर पड़ने के साथ ही जाने कैसे उसका पैर फिसल गया। जब मैं पीछे मुड़ी तो मैंने अम्मा को गिरते हुए देखा और अगले ही पल पीछे से आ रहे ट्रक ने उसे टक्कर मार दी। तेज़ रफ़्तार ने एक झटके में मेरी छोटी सी दुनिया ख़त्म कर दी। मुझे अच्छे से याद है, अम्मा ने मेरी तरफ हाथ बढ़ाया था। यह जानते हुए भी कि मैं उसका हाथ नहीं थाम सकती, उस पल उसका हाथ मेरी ओर बढ़ा था। मैं कुछ नहीं कर पाई सिवाय रोने और चीखने के। पुलिस उसकी लाश उठाकर ले गई। क्यों , कहां, पता नहीं। छोड़ गई मुझे, मेरे घर, उसी फुटपाथ पर।
जबसे अम्मा गई, सबकुछ बदल गया। उसकी ढोलक अब भी वहीँ रखी है, मेरे अधूरेपन का मज़ाक बनाती है। अब मैं कोई करतब नहीं करती, सिग्नल पर पांव में पकड़ा कटोरा ऊपर उठा देती हूं। गाड़ी में बैठे लोगों को अब मुझपर दया नहीं आती, उनकी नज़रें मेरे सलवार के घिसने से हुए छेदों में झांकती हैं। उनकी नज़र मेरे दोनों कन्धों के बीच ऐसे रुक जाती है, जैसे मेरी ज़िन्दगी रुकी है। मांगती हूं सबसे क्योंकि मेरी नज़र में वो मुझसे बड़े हैं, अमीर हैं, लेकिन हर गुज़रती गाड़ी अपने साथ मेरा कुछ ले जाती है। मैं यहीं छूट जाती हूं, टूट सी जाती हूं। अरे !देखो न, सुबह हो गई। फिरसे रुकने लगी हैं गाड़ियां उसी सिग्नल पर जहां बिकना नहीं चाहती मैं, फिर भी लोग मुझे खरीदना चाहते हैं। इसके बावजूद भी कि मैं 'अधूरी' हूं, 'भिखारन' हूं।