Sunday, 17 July 2016

ताकि सिर्फ नाम बनकर न रह जाए 'शीरोज हैंगआउट'

         एसिड अटैक पीडि़त महिलाओं के हौसले को हिम्मत देने के मकसद से राजधानी में की गई पहल फीकी पड़ती नजर आ रही है। ताजनगरी आगरा में सफल रहे प्रयास की तर्ज पर लखनऊ में भी 'शीरोज हैंगआउट' कैफे खोला गया था। महिला दिवस के मौके पर आठ मार्च को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गोमतीनगर स्थित इस कैफे का उद्घाटन किया था। कैफे की खासियत है कि यहां काम करने वाला स्टाफ एसिड अटैक पीडि़त महिलाओं का है। चार महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद आलम यह है कि यहां आना तो दूर, आधा शहर इस जगह का नाम तक नहीं जानता। 'शीरोज हैंगआउट' अंबेडकर पार्क  के ठीक सामने है लेकिन हर शाम पार्क  में जुटने वाली सैंकड़ों की भीड़ को इस जगह के बारे में नहीं पता।


इतना ही नहीं, आसपास रहने वाले लोग भी शीरोज हैंगआउट के नाम से अनजान दिखे। वजह भी सीधी सी है न तो इस जगह के बारे में कोई प्रचार किया गया और न ही इसकी खासियत लोगों तक पहुंची। पिछले दिनों आयोजित मैंगो फेस्टिवल तो होर्डिंग्स के जरिए शहर के कोने-कोने में पहुंच गया, लेकिन शीरोज हैंगआउट की खासियत बताती कोई होर्डिंग शहर में नहीं दिखती। सोमवार को जब मैं शीरोज हैंगआउट के हालात का जायजा लेने पहुंचा तो इक्का-दुक्का लोगों के अलावा बाकी कुर्सियां खाली दिखाई दीं। यह कैफे तेजाब हमले का दर्द झेल चुकी महिलाओं के चेहरे पर आत्मविश्वास और खुशी लाने के मकसद से खोला गया था। लोगों से मिल रही प्रतिक्रिया इसके लिए नाकाफी दिखती है।

           शीरोज हैंगआउट के मैनेजर पवन सिंह ने बताया कि यहां प्रदेश भर के सहारनपुर, कासगंज, फैजाबाद जैसे जिलों से आठ विक्टिम काम कर रही हैं। पहले कैफे सिर्फ शाम पांच से रात 10 बजे तक खुलता था, अब पूरे दिन खुला रहता है। हालांकि लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है। उन्होंने बजट की कमी को बड़ी वजह मानते हुए कहा कि गर्मी में यहां एसी होनी चाहिए। खुला स्पेस होने की वजह से गर्मी और धूप से बचत नहीं हो पाती, ठंड से पहले यह इंतजाम भी पक्के होने चाहिए। ग्लासेज भी लगने है जिसके लिए अगले एक दो महीने में काम शुरू हो जाएगा। इसके अलावा प्रचार के लिए पैम्प्लेट भी छपवाए जा रहे हैं। प्रोजेक्ट डायरेक्टर भूपेंद्र ने भी माना कि लोग कम आ रहे हैं और कैफे को एडवरटाइजमेंट की जरूरत है। कैफे में काम करने वाली प्रीती, अंशू, शांति, प्रमोदिनी, रुपा और रेशमा को आने वाले दिनों में कैफे में भीड़ बढऩे की उम्मीद है।


                                                                       रेस्टोरेंट से कहीं ज्यादा है शीरोज हैंगआउट 

शीरोज का नाम अंग्रेजी के दो शब्दों 'शी' और 'हीरोज' को मिलाकर रखा गया है। यह जगह समाज के ऐसे हीरोज से रूबरू होने का मौका देती है जिन्होंने अपनी पहचान खोकर भी जिंदगी से हार नहीं मानी। यह हीरोज खुद को पीडि़त नहीं मानते, दूसरों को हिम्मत देने का माद्दा रखते हैं। शीरोज हैंगआउट केवल रेस्टोरेंट या कैफे न होकर यहां आने वाले कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बना है। इस कैफे में आर्ट गैलरी, बुक रीडिंग सेक्शन के अलावा वर्क शॉप और प्रदर्शनी के लिए स्पेस भी है जहां इन वर्कर्स के  हाथों का हुनर और कौशल दिखता है। यहां आने वाले लोग इन प्रदर्शनियों में लगी कलाकृ तियां देखते हुए और किताबें पढ़कर भी अपना समय बिता सकते हैं। पहले यह कोशिश आगरा में की गई जहां देश-विदेश से आने वाले हजारों पर्यटकों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। राजधानी में जो चंद लोग शीरोज आते हैं उनके लिए यह रेस्टोरेंट का एक विकल्प है। मैनेजर पवन कहते हैं कि यहां सिर्फ टाइमपास ही नहीं बहुत कुछ इनोवेटिव किया जा सकता है। जो लोग हमसे जुडऩा चाहते हैं और बातें साझा करते हैं, यहां से बहुत कुछ लेकर और प्रेरित होकर जाते हैं।

                   दिल से पसंद है लखनऊ, पर जाने क्यों लोग कम आते हैं : फरहा खान 

        मूल रूप से फर्रुखाबाद से जुड़ी फरहा खान 'शीरोज हैंगआउट' की शुरूआत से यहां काम कर रही हैं। उनका परिवार दिल्ली में रहता है और सभी भाई बहनों में वह सबसे बड़ी हैं। कहती हैं कि मुझे बहुत कम शहर पसंद आते हैं लेकिन लखनऊ दिल से पसंद है। मैं भूलभुलैया घूमने गई हूं और मुझे यहां की इमारतें बहुत पसंद हैं। लखनऊ की तहजीब सबसे खास है लेकिन जमाने का असर इस पर भी हुआ है। शीरोज से अपना लगाव जताते हुए उन्होंने बताया कि हमारे लिए यहां रहना परिवार में रहने जैसा है। अभी यह परिवार छोटा है, वक्त के साथ बड़ा हो जाएगा। फरहा ने बताया कि वैसे तो आगरा के शीरोज के मुकाबले यहां लोग न के बराबर आते हैं। फिर भी कई ऐसे लोग हैं जो सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार हमारे लिए वक्त निकालकर हमसे मिलने आते हैं, अच्छा लगता है। सुरेंद्र राजपूत यहां रोज आने वालों में से हैं। फरहा लोगों के कम आने के पीछे अच्छी ब्रांडिंग न होने को वजह मानती हैं। उन्हें लगता है कि शीरोज हैंगआउट से लोगों को जोडऩे के लिए अगर ब्रांडिंग पर काम किया जाए तो लोग यहां आयेंगे भी और इसके बारे में जानने को उत्सुक भी होंगे। 

                  चाहती हूं लोग हमसे जुड़ें, इसे सिर्फ कैफे समझकर न आएं : अंशू


अंशू ने इस साल इंटर किया है और अब आगे पढऩा चाहती हैं। कहती हैं मैं खूब पढऩा चाहती हूं और अपनी पहचान बनाना चाहती हूं। यूं तो घर में छोटी हूं फिर भी जिम्मेदारी समझते हुए दूसरों की मदद करना चाहती हूं। बिजनौर जिले की अंशू पहले आगरा और अब लखनऊ में शीरोज से जुड़ी। उन्हें इस बात की खुशी है कि 'शीरोज हैंगआउट' ने उन्हें पहचान दी है। बड़े गर्व से कहती हैं कि अब हमें चेहरा छुपाने की जरूरत नहीं, और वैसे भी हमने कुछ गलत नहीं किया तो क्यों छुपते फि रें। लोगों से हैंगआउट को मिल रही प्रतिक्रिया के सवाल पर वह साफ कहती हैं कि अगर कोई आता है तो कपल्स। उन्हें इस बात से भी शिकायत है कि लोग यहां अपना फूड इंज्वाय करते और चले जाते हैं, किसी को इस बात से फर्क  नहीं पड़ता कि वह शीरोज में हैं। अंशू ने बताया कि आगरा में बच्चा-बच्चा शीरोज हैंगआउट के नाम से वाकिफ है, जबकि यहां आने वालों को इसके अलग होने से कोई मतलब नहीं। शायद यही वजह है अंशू आगरा को ज्यादा पसंद करती हैं। अपनी दोस्त रितु की उन्हें बहुत याद आती है। बेहद जिंदादिल अंशू मुस्कराते हुए कहती हैं,'लखनऊ से बहुत उम्मीदें हैं। पता नहीं यह शहर हमें समझने में इतना वक्त क्यों लगा रहा है।'

Tuesday, 12 July 2016

'तोता-मैना स्थल' बन चुके शहर के पार्कों में बहती प्रेम-रस की धारा...

          सुबह-सुबह ठंडी हवा और हरियाली में टहलना सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है. शहरों में कंक्रीट की इमारतों की भेंट चढ़ती हरियाली को बचाने और लोगों को स्वस्थ रखने के लिए पार्क बनाए गए. सुबह शाम यहां टहलने आने वालों की संख्या सैकड़ों में है. हर दूसरा मधुमेह का मरीज डाक्टर की सलाह मानकर कार से ही सही लेकिन पार्क तक ज़रूर आता है. लेकिन जितना मधु इन पार्कों में है, उसके दर्शन मात्र से ही आप बीमार हो सकते हैं.

         मुद्दा जरा अटपटा लग सकता है, लेकिन न आप और न ही मैं इससे अंजान हैं. मेरा एक साथी मजाकिया लहजे में अक्सर कहता है दुनिया में प्यार कहीं है, तो पार्कों में! वैसे तो  घूमने का आनंद गाँवों में कहीं भी मिल जाता है, लेकिन उस रोज ऑफिस के असाइनमेंट के चलते एक पार्क के भ्रमण का सुअवसर मिला. हम गन्दगी और अव्यवस्था से जड़ी खबर ढूंढने निकले थे, प्रवेश करते ही साथी का जुमला याद आ गया.


        पार्क में ओर प्रेम की धारा बह रही थी. कहीं पेड़ की छांव तो कहीं हरी घास पर प्रेम-पुजारी अपनी साधना में लीन थे. दीन-दुनिया से बेफिक्र उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आसपास कौन आ-जा रहा है. लग रहा था जैसे बिना कैमरे और डायरेक्टर के ढेर सारी रोमांटिक फिल्मों की शूटिंग एकसाथ चल रही है. शायद ये हास्यास्पद लगे लेकिन अब मैं खुदको असुरक्षित महसूस कर रहा था. नज़रें झुकाकर किसी अपराधी की तरह मैं पार्क में प्रवेश कर रहा था क्योंकि इस प्रेम रस से ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए अव्यवस्था और गन्दगी की खबर निकालना था.

        आगे बढ़कर देखा तो पार्क में सफाई का आलम यह था कि रात को पेड़ों से गिरे पत्ते भी भोर अंधेरे साफ़ कर दिए गए थे. झाड़ू से बने लकीरों के निशान ज़मीन पर अब भी नज़र आ रहे थे. घास काटने की मशीनें आवाज़ करके कर्तव्यनिष्ठा दिखा रही थीं और खबर जैसा यहां कुछ भी न था. शायद यह मेरी ही गलती थी कि मैंने शहर का एक बड़ा और नामी पार्क चुन लिया था. फिर भी यहां आसपास के माहौल से ऐसा लग  रहा था मानो मैं किसी गलत गली में आ गया हूँ.

       देर न करते हुए खाली हाथ मैं वहां से लौटने को हुआ तभी माथा ठनका. प्रेम साधना में लीन युगलों की तपस्या को भंग करने  के लिए अप्सराओं रुपी गार्ड नदारद थे. गेट को छोड़कर पूरी पार्क में किसी सुरक्षा गार्ड की परछाईं तक नहीं दिखी तो मैंने तफ्तीश करने का मन बनाया. पता चला दिन और रात दोनों में 24-24 गार्ड तैनात होने चाहिए, लेकिन शायद वो भी प्रेमलीला में बाधा पहुंचाकर पाप के भागी नहीं बनना चाहते.

          लगभग हर पार्क में ऐसे दृश्य अब आम हो चलें हैं. इसका परिणाम यह है कि कोई भी सपरिवार पार्क में पिकनिक मनाने नहीं आना चाहता. मैं भी ऐसा करने की सलाह नहीं दूंगा. इससे तो बेहतर है कि आप पूरे परिवार के साथ सेंसरबोर्ड से 'ए' सर्टीफिकेट पाने वाली 'उड़ता पंजाब' फिल्म देख लें. आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता फैलाना अगर कहीं से भी तर्कसंगत लगता हो तो मैं इच्छुक जन को बहस के लिए आमंत्रित करना चाहूंगा.

           पार्क से निकलने से पहले बाहर बैठी महिला गार्ड से बातचीत में अलग ही पहलू सामने आया. परिवारों के पार्क में न आने के सवाल पर हंसते हुए बोलीं,'ये तो कपल-पार्क है न बाबू.' स्पष्ट जवाब देते हुए उन्होंने कहा 'मैं तो साफ़ बोलती हूँ. अगर ये प्रेमी पार्क न आएं तो पार्क कल ही बंद हो जाएगा. सुबह टहलने आने वालों ने मासिक पास बनवा रखे हैं, ऐसे लोग भी सैकड़ों में हैं. दिन भर पार्क में जमे रहने वाले जोड़ों की वजह से रोजाना हज़ारों टिकट बिकते हैं. उल्टी-सीधी हरकत करते पकड़े जाने लड़के-लड़कियां अपने दोस्तों को मम्मी-पापा बनाकर उनसे बात करवा देते हैं.'

           पार्क में बढ़ती प्रेमियों की भीड़ पर भी उन्होंने सटीक वजह बताई. कहा,'बड़े-बड़े घर के  लड़के-लड़कियां आते हैं.  मॉल जाएंगे तो पिक्चर देखने और खाने में कम से कम हज़ार पांच सौ रूपए का खर्च आएगा. यहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक खुले पार्क में पांच रुपए में काम बन जाता है. बहुत ज़्यादा तो सौ-दो सौ रुपये तक कुछ खा पी लेते हैं. स्कूल-कॉलेज यूनीफार्म में लड़के-लड़कियां रोजाना आते हैं और टोकने पर लड़ने पर उतारू हो जाते हैं.

           यह लेख कई आधुनिक सोच वाले और मॉडर्निटी की पैरवी करने वालों को आपत्तिजनक लग सकता है. उनसे मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं, आधुनिकता और विस्तृत सोच का पार्क में किसी की गोद में सिर झुकाने से कोई वास्ता नहीं है. आधुनिकता आचरण और दिखावे से पहले मानसिकता में दिखनी चाहिए. बेशर्मी आधुनिकता का पर्यायवाची  न कभी था और न हो सकता है.


           एक उपाय जो समझ आता है वो है पार्कों में सीसीटीवी कैमरे लगवाना और सुरक्षा गार्ड्स की सक्रियता. पार्क जिस उद्देश्य से बनाए गए थे वह पूरे हों तो परिणाम सुखद होंगे. वरना रोज़ प्यार के नाम पर चल रही अश्लीलता और इससे जुड़े अपराधों को नज़रअंदाज़ करते हुए पार्कों का नाम 'तोता मैना स्थल' ही कर दिया जाना चाहिए. साथ ही क्लबों की तरह इनमें भी बोर्ड लगने चाहिए,'एंट्री ओनली फॉर कपल्स!'
(सभी तस्वीरें: गूगल से साभार)

Sunday, 10 July 2016

हमारी सोच पर हावी होता सोशल मीडिया

           हमारे एक पुराने मित्र मिलते ही बिफर पड़े, 'कैसे पत्रकार हो भाई आप! स्विस बैंक में खाताधारकों के नाम पब्लिक हो गए और आपको खबर तक नहीं!' उनका दावा और गुस्सा देख एक पल को हम भी भौचक्के रह गए. इतनी बड़ी बात हो गयी और मुझे पता कैसे नहीं चला, मेरे तो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, गुस्से में मुट्ठियां भींचते उन्होंने मेरी सारी आशंकाओं पर विराम लगा दिया. बोले,'व्हाट्सएप वगैरह चलाते हो कि नहीं? तुम मीडिया वालों ने तो पैसा खा रखा है, तुम क्यों सच बताओगे.'


हां, सही तो है. हम क्यों सच बताने लगे, सच बताने और हर छुपी बात सामने लाने का ठेका तो व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर आपके हितैषियों ने ले रखा है. जो कभी स्विस बैंक के खाताधारकों में पूर्व राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को शामिल कर देते हैं तो कभी हेलन की फोटोशॉप तस्वीर को कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की जवानी से जोड़ देते हैं. इतना ही नहीं ये हितैषी ही आपको ऐसा मैसेज भेज सकते हैं, जिसे तीन ग्रुप्स में फॉरवर्ड करते ही आपका फ़ोन 100 प्रतिशत चार्ज हो जायेगा, या फिर आपको 5 जीबी डेटा फ्री मिलेगा. हमारे बस में तो इतना सब नहीं है.
          बेशक आप समझ चुके होंगे मेरा इशारा किस तरफ है! यूं तो सोशल मीडिया संचार क्षेत्र में क्रान्ति लेकर आया है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसका उपयोग अफवाहों को फैलाने और झूठा प्रचार करने के लिए बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. यही नहीं, इससे जुड़े कुछ उदहारण शायद आपको बेवकूफाना लगें लेकिन करोड़ों लोग जानबूझकर ऐसी बेवकूफियां करते हैं और दूसरों को भी अपने कुटुंब में शामिल करना चाहते हैं.
         सिर्फ एक मैसेज और मेरे दोस्तों ने कुरकुरे खाना काम कर दिया, फ्रूटी पीनी छोड़ दी. इस मैसेज में कहा गया था कि कुरकुरे में प्लास्टिक है, सबूत पेश हुआ कि आप चाहें तो इसे जलकर देख लें, ये प्लास्टिक की तरह जलता है. और तो और कहा गया कि फ्रूटी की फैक्ट्री में कुछ एचआईवी पॉजिटिव वर्कर्स ने अपना खून फ्रूटी में मिला दिया है, तो सावधान आपको भी एचआईवी हो सकता है. सच तो यह है कि कुछ भी खाने-पीने से एड्स का वायरस नहीं फैलता, कुरकुरे भी प्लास्टिक नहीं स्टार्च की वजह से अलग तरह से जलता दिखता है. इन ख़बरों का सच से कोई वास्ता नहीं था, लेकिन बड़े तबके ने इन पर विश्वास कर लिया. सिर्फ निरक्षर और पिछड़ा वर्ग ही नहीं, मॉडर्न सोसाइटी के पढ़े लिखे लोगों ने भी इस पर यकीन किया. 
           एक और बड़ी खबर व्हाट्सएप, फेसबुक सोशल मीडिया के ज़रिये तेजी से फैली, इसमें कहा गया कि राष्ट्रगान 'जन गण मन' को यूनेस्को ने बेस्ट राष्ट्रगान का खिताब दिया है. खबर फैलने की देरी थी कि बधाइयों का दौर शुरू हो गया. भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने ट्विटर पर बधाई भी दे डाली. बाद में यह खबर भी झूठ निकली. कुछ इसी तरह एक तस्वीर शेयर की जाने लगी जिसे नासा द्वारा दीवाली पर्व के वक़्त ली गई भारत की तस्वीर बताया जाने लगा. लोग धड़ाधड़ शेयर करते गए और मूर्ख बनते गए. जबकि इसका सच  तक कोई वास्ता नहीं था. ये तस्वीर भी फोटोशॉप से बनाई गई थी.
          ऐसे एक नहीं ढेरों उदाहरण मिलेंगे, मैसेज भी ऐसे जो कोई सपने में नहीं सोच सकता. यह फोटो शेयर करें, इसमें बनी मक्खी उड़ जाएगी. कमेंट में 'उठ' टाइप करें और तस्वीर में रेलवे ट्रैक पर लेटी लड़की खड़ी हो जाएगी. बेशक यह बेवकूफाना लगे लेकिन हैरानी होती है जब ऐसी तस्वीरों पर हज़ारों कमेंट और शेयर्स मूर्खता करने वालों की गवाही देते नज़र आते हैं. हमारी यह बेवकूफी कई बार किसी की छवि को धूमिल कर देती है, गलत खबर को लोगों तक पहुंचा देती है. सांप्रदायिक दंगों के रूप में भी ऐसी अफवाहों के दुष्परिणाम सामने  आते रहे हैं.
         बड़ा सवाल है कि हम ऐसा क्यों करते हैं? दोस्त को घंटों समझाने के बाद जब इस बात का जवाब पूछा तो बोले शेयर करने में हमारा क्या जाता है! किसको फुर्सत है जो हर मैसेज की की जांच और तफ्तीश करे.
 सच है, हमारा क्या जाता है! जाता कुछ भी न हो जनाब, तब भी आप उन मूर्खों की लिस्ट में जगह बना लेते हैं जिनमें तर्कशक्ति का अभाव है. क्या सही है और क्या गलत, क्या सच है और क्या झूठ, बिना पूरी बात जाने उसे दूसरों के हवाले करना शायद आपकी नज़र में गलत न हो, लेकिन खतरनाक ज़रूर है.

         अगर आप भी ऐसे मैसेज और तस्वीरों पर पल में यकीन कर इन्हें फॉरवर्ड और शेयर करने वालों में से हैं तो सोशल मीडिया आपके विचारों और सोचने-समझने की  प्रभावित कर रहा है. ज़रूरी है कि अभी संभल जाएं, वरना कल को स्विस बैंक के खाताधारकों की लिस्ट में अगर आपका नाम भी वायरल होने लगे तो मुझसे न कहिएगा. आपका एक मैसेज न फॉरवर्ड करना बड़ा कदम होगा, जो झूठ शायद किसी बड़े दंगे या घटना की वजह  बन सकता था, सिर्फ आपकी वजह से ख़त्म हो जाएगा.

        बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं लगता सच जानने में! अपने मैसेज को ले जाएं और गूगल सर्च के हवाले कर दें, थोड़ी ही देर में उसका सच सामने होगा. अगर आपके पास इतना वक़्त नहीं है, तो बुरा न मानिए लेकिन उसे दूसरों तक पहुंचाने  हक़ नहीं. अब हर कोई आप जितना स्मार्ट नहीं होता न, जो सच और झूठ के भेद को समझ ले. बेहतर होगा अगर अब आप सोशल मीडिया को यूज़ करें न कि वह आपको इस्तेमाल कर रहा हो.