इतना ही नहीं, आसपास रहने वाले लोग भी शीरोज हैंगआउट के नाम से अनजान दिखे। वजह भी सीधी सी है न तो इस जगह के बारे में कोई प्रचार किया गया और न ही इसकी खासियत लोगों तक पहुंची। पिछले दिनों आयोजित मैंगो फेस्टिवल तो होर्डिंग्स के जरिए शहर के कोने-कोने में पहुंच गया, लेकिन शीरोज हैंगआउट की खासियत बताती कोई होर्डिंग शहर में नहीं दिखती। सोमवार को जब मैं शीरोज हैंगआउट के हालात का जायजा लेने पहुंचा तो इक्का-दुक्का लोगों के अलावा बाकी कुर्सियां खाली दिखाई दीं। यह कैफे तेजाब हमले का दर्द झेल चुकी महिलाओं के चेहरे पर आत्मविश्वास और खुशी लाने के मकसद से खोला गया था। लोगों से मिल रही प्रतिक्रिया इसके लिए नाकाफी दिखती है।
शीरोज हैंगआउट के मैनेजर पवन सिंह ने बताया कि यहां प्रदेश भर के सहारनपुर, कासगंज, फैजाबाद जैसे जिलों से आठ विक्टिम काम कर रही हैं। पहले कैफे सिर्फ शाम पांच से रात 10 बजे तक खुलता था, अब पूरे दिन खुला रहता है। हालांकि लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है। उन्होंने बजट की कमी को बड़ी वजह मानते हुए कहा कि गर्मी में यहां एसी होनी चाहिए। खुला स्पेस होने की वजह से गर्मी और धूप से बचत नहीं हो पाती, ठंड से पहले यह इंतजाम भी पक्के होने चाहिए। ग्लासेज भी लगने है जिसके लिए अगले एक दो महीने में काम शुरू हो जाएगा। इसके अलावा प्रचार के लिए पैम्प्लेट भी छपवाए जा रहे हैं। प्रोजेक्ट डायरेक्टर भूपेंद्र ने भी माना कि लोग कम आ रहे हैं और कैफे को एडवरटाइजमेंट की जरूरत है। कैफे में काम करने वाली प्रीती, अंशू, शांति, प्रमोदिनी, रुपा और रेशमा को आने वाले दिनों में कैफे में भीड़ बढऩे की उम्मीद है।
रेस्टोरेंट से कहीं ज्यादा है शीरोज हैंगआउट
शीरोज का नाम अंग्रेजी के दो शब्दों 'शी' और 'हीरोज' को मिलाकर रखा गया है। यह जगह समाज के ऐसे हीरोज से रूबरू होने का मौका देती है जिन्होंने अपनी पहचान खोकर भी जिंदगी से हार नहीं मानी। यह हीरोज खुद को पीडि़त नहीं मानते, दूसरों को हिम्मत देने का माद्दा रखते हैं। शीरोज हैंगआउट केवल रेस्टोरेंट या कैफे न होकर यहां आने वाले कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बना है। इस कैफे में आर्ट गैलरी, बुक रीडिंग सेक्शन के अलावा वर्क शॉप और प्रदर्शनी के लिए स्पेस भी है जहां इन वर्कर्स के हाथों का हुनर और कौशल दिखता है। यहां आने वाले लोग इन प्रदर्शनियों में लगी कलाकृ तियां देखते हुए और किताबें पढ़कर भी अपना समय बिता सकते हैं। पहले यह कोशिश आगरा में की गई जहां देश-विदेश से आने वाले हजारों पर्यटकों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। राजधानी में जो चंद लोग शीरोज आते हैं उनके लिए यह रेस्टोरेंट का एक विकल्प है। मैनेजर पवन कहते हैं कि यहां सिर्फ टाइमपास ही नहीं बहुत कुछ इनोवेटिव किया जा सकता है। जो लोग हमसे जुडऩा चाहते हैं और बातें साझा करते हैं, यहां से बहुत कुछ लेकर और प्रेरित होकर जाते हैं।
दिल से पसंद है लखनऊ, पर जाने क्यों लोग कम आते हैं : फरहा खान
मूल रूप से फर्रुखाबाद से जुड़ी फरहा खान 'शीरोज हैंगआउट' की शुरूआत से यहां काम कर रही हैं। उनका परिवार दिल्ली में रहता है और सभी भाई बहनों में वह सबसे बड़ी हैं। कहती हैं कि मुझे बहुत कम शहर पसंद आते हैं लेकिन लखनऊ दिल से पसंद है। मैं भूलभुलैया घूमने गई हूं और मुझे यहां की इमारतें बहुत पसंद हैं। लखनऊ की तहजीब सबसे खास है लेकिन जमाने का असर इस पर भी हुआ है। शीरोज से अपना लगाव जताते हुए उन्होंने बताया कि हमारे लिए यहां रहना परिवार में रहने जैसा है। अभी यह परिवार छोटा है, वक्त के साथ बड़ा हो जाएगा। फरहा ने बताया कि वैसे तो आगरा के शीरोज के मुकाबले यहां लोग न के बराबर आते हैं। फिर भी कई ऐसे लोग हैं जो सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार हमारे लिए वक्त निकालकर हमसे मिलने आते हैं, अच्छा लगता है। सुरेंद्र राजपूत यहां रोज आने वालों में से हैं। फरहा लोगों के कम आने के पीछे अच्छी ब्रांडिंग न होने को वजह मानती हैं। उन्हें लगता है कि शीरोज हैंगआउट से लोगों को जोडऩे के लिए अगर ब्रांडिंग पर काम किया जाए तो लोग यहां आयेंगे भी और इसके बारे में जानने को उत्सुक भी होंगे।
चाहती हूं लोग हमसे जुड़ें, इसे सिर्फ कैफे समझकर न आएं : अंशू
अंशू ने इस साल इंटर किया है और अब आगे पढऩा चाहती हैं। कहती हैं मैं खूब पढऩा चाहती हूं और अपनी पहचान बनाना चाहती हूं। यूं तो घर में छोटी हूं फिर भी जिम्मेदारी समझते हुए दूसरों की मदद करना चाहती हूं। बिजनौर जिले की अंशू पहले आगरा और अब लखनऊ में शीरोज से जुड़ी। उन्हें इस बात की खुशी है कि 'शीरोज हैंगआउट' ने उन्हें पहचान दी है। बड़े गर्व से कहती हैं कि अब हमें चेहरा छुपाने की जरूरत नहीं, और वैसे भी हमने कुछ गलत नहीं किया तो क्यों छुपते फि रें। लोगों से हैंगआउट को मिल रही प्रतिक्रिया के सवाल पर वह साफ कहती हैं कि अगर कोई आता है तो कपल्स। उन्हें इस बात से भी शिकायत है कि लोग यहां अपना फूड इंज्वाय करते और चले जाते हैं, किसी को इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि वह शीरोज में हैं। अंशू ने बताया कि आगरा में बच्चा-बच्चा शीरोज हैंगआउट के नाम से वाकिफ है, जबकि यहां आने वालों को इसके अलग होने से कोई मतलब नहीं। शायद यही वजह है अंशू आगरा को ज्यादा पसंद करती हैं। अपनी दोस्त रितु की उन्हें बहुत याद आती है। बेहद जिंदादिल अंशू मुस्कराते हुए कहती हैं,'लखनऊ से बहुत उम्मीदें हैं। पता नहीं यह शहर हमें समझने में इतना वक्त क्यों लगा रहा है।'