Monday, 18 April 2016

और जब मैंने बर्तन धोए!

आज से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था, लेकिन आज हालात कुछ बदले हुए से लग रहे थे. परिवार एक शादी में शामिल होने गाँव गया था और मैं घर पर अकेले किसी राजा की तरह चहलकदमी कर रहा था. अपने मन को हर पसंदीदा काम करने के लिए तब तक मनाता रहा, जब तक थक कर चूर नहीं हो गया. नज़रें घड़ी की ओर उठीं तो दोनों सूइयां मुस्कराते हुए 10 बजकर 10 मिनट का इशारा कर रही थीं.
   
     भई हमने अपने अभिन्न अंग मोबाइल महाशय से सॉरी बोलते हुए सोने का मन बनाया ही था कि याद आया, दोपहर से लेकर रात के खाने तक के सारे बर्तन मेरे इंतज़ार में बैठे हैं. तो मैं बर्तन धुलूँगा? एक पल तो मुझे ये समझने में लग गया कि यहाँ पर दूसरा कोई नहीं है जिसे यह काम सौंपा जा सके. 'हिम्मत-ए-मर्दा, मदद-ए-खुदा', यही सोचकर हमने बाहें समेटीं और ठीक 10 बजकर 18 मिनट पर घर में बर्तनों की आवाज़ सुनाई देने लगी. एक के बाद एक, बर्तन मानों बढ़ते जा रहे थे. छोटे-छोटे चम्मच मानों लुका-छिपी खेल रहे थे और कुकर-कड़ाही किसी बड़े दैत्य की तरह मुझे चुनौती दे रहे थे.


     एक के बाद एक बर्तन को बेमन से घिसता मैं ऊब चुका था. अब समझ आ रहा था कि मम्मी क्यों बेवजह बर्तन जूठे करने से मना करती हैं, पर मैं अपनी आदत से बाज़ नहीं आता. हालाँकि अब मेरी मेहनत रंग लाने लगी थी और बर्तन मुझे मेरी ही सूरत दिखाकर हंसने लगे थे, वहीँ काली कड़ाही एकमात्र कठिन चुनौती बनकर सामने थी. बाकी बर्तनों को धुलकर किनारे करने के बाद हमने कुकर जी की सेवा शुरू की. ख़ुशी हुई कि उन्होंने जल्दी ही हथियार डाल दिए.

     अब मैं बुरी तरह थककर चूर हो चुका था और मुझे गुस्सा भी आ रहा था, सारा गुस्सा काली कड़ाही पर उतारते हुए मैं टूट पड़ा. मैं घिसता जा रहा था लेकिन कड़ाही ने मेरा साथ न देने की ठान ली थी. आखिर मैंने मान लिया कि इसका कुछ नहीं हो सकता. बाकी बर्तनों को किचन में सजाने के बाद मैंने कड़ाही को यूं ही छोड़ दिया.
 
    बिस्तर पर आकर लेटा था तभी कल सुबह बने पालक के पकौड़े याद आए, पूरी-कचौरी, चटपटी सब्जी से लेकर ढेर सारे पकवान याद आने लगे. इन सारे पकवानों में एक चीज़ सामान थी और वो इनकी तेल में छनछन! अब मुझे किचन में पड़ी काली कड़ाही से सहानुभूति हो रही थी जो खुद जलकर मुझे पकवानों का आनंद देती रही है. एक बार फिर मैं कड़ाही पर हाथ घिस रहा था, लेकिन इस बार प्यार से. शायद ये मेरा प्यार ही था कि कड़ाही में मुझे मेरा मुस्कराता चेहरा नज़र आने लगा था और काली कड़ाही अब बर्तनों की रानी की तरह किचन में सजा दी गई थी.
 
    ठीक 12 बजे जब मैं फिर से बिस्तर पर गया तो थकान से ज्यादा संतोष था और माथे पर शिकन नहीं होंठों पर मुस्कान थी. आज मैंने सिर्फ बर्तन ही नहीं अपने मन को भी धोया था, उस रात सच में मैं बहुत सुकून से सोया था. 

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