Wednesday, 30 November 2016

ठण्ड की वो शाम.. खाली बेंच और इंतज़ार

               उस शाम वो बसस्टॉप की ठंडी बेंच पर चुपचाप बैठा था। खाली, एकदम खाली। मन में ढेर सारे विचारों का गुबार सा उठ रहा था, लगातार कुछ सोच रहा था वो। उसे खुद इस बात का एहसास नहीं था कि बेंच पर बैठे एक घंटे से ज़्यादा वक़्त बीत चुका है और अंधेरा धीरे-धीरे घना होता जा रहा है। दरअसल वो खुद भी उलझा हुआ था, खुदसे ये पूछने में कि उसे क्या सोचना चाहिए और क्यों। विचार आते जा रहे थे और वो किसी मंझे हुए फुटबॉल खिलाड़ी की तरह उन्हें लात मारता जा रहा था। आखिर वह कर क्या रहा था, इस एक विचार को लात मारने ही वाला था कि रुक गया। हां! मैं क्या कर रहा हूं यहां? इतनी ठण्ड में। सामने एक बस खड़ी थी और उसकी खाली बेंच से दूर कुछ सवारियां बस के चलने के इंतज़ार में थीं। 'इंतज़ार', यहीं पर आकर आज थम गया वो। वो न तो कुछ करने आया था और न ही कुछ कर रहा था लेकिन अब उसके पास भी करने को कुछ था। ये कुछ था, इंतज़ार!
         उसने इंतज़ार करने का मन बनाया। किसी बस का नहीं, किसी इंसान का नहीं, किसी सपने, किसी चीज़ का नहीं। खुद का और इन विचारों के रुकने का इंतज़ार। अब उसे बेंच पर घंटों बैठने का मकसद समझ आ रहा था, वो भी तो इंतज़ार कर रहा था। वो बस सोचता जा रहा था, शायद खुद को तसल्ली देने के लिए सबसे आसान होता है इंतज़ार। हम किसी का करते हैं और कोई हमारा। इंतज़ार करने का ख्याल मन में आता ही किसी ज़रुरत के बाद है। हमें किसी की ज़रुरत हो और वो पास न हो तो इंतज़ार शुरू हो जाता है। हमें कुछ चाहिए और मिल नहीं पा रहा, क्या करेंगे इंतज़ार के अलावा। कई बार तो हमें भी नहीं पता होता हम किसका इंतज़ार कर रहे हैं, पर एक खालीपन होता है जिसे भरने की चाहत इंसान से लंबा इंतज़ार करवाती है। इंतज़ार करना विकल्प नहीं, ज़रुरत नहीं, मज़बूरी है। किसे अच्छा लगता है एक पल भी इंतज़ार करना, पर क्या करें करना पड़ता है।
       कभी सोचा है अगर इंतज़ार ही न हो तो! बेबस हो जाएगा इंसान। या तो बेचारा बन जाएगा या तो ताकतवर। तो कई बार इंतज़ार ज़िन्दगी भर का हो जाता है, कई बार ख़त्म हो जाता है। इंतज़ार जितना लंबा हो तक़लीफ़ उतनी बढ़ती जाती है। पर कोई क्या करे अगर इंतज़ार करते-करते अरसा बीत जाए और कोई न आए, क्या करना चाहिए उसे। खुद से यह कहना चाहिए कि बस अब और नहीं और ख़त्म करना चाहिए इंतज़ार, लेकिन सिर्फ तब जब खुदपर यकीन हो जाए। जब पता हो कि अब मुझे उसकी ज़रुरत ही नहीं जिसका मैं इंतज़ार करता रहा तो यही सही वक़्त है इंतज़ार ख़त्म करने का।
         उसके सामने से एक के बाद एक बसें गुज़र रही थीं, क्योंकि हर स्टॉप पर लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। लोग बस का इंतज़ार कर रहे थे क्योंकि कोई उनका इंतज़ार कर रहा था। बेंच खाली है फिर भी कोई सवारी उसपर नहीं बैठती, इसकी वजह भी इंतज़ार है। इंतज़ार भी ऐसा जो चैन से बैठने नहीं देता, सुकून नहीं मिलने देता। बस खाली है फिर भी उन्हें जल्दी चढ़ना है जिससे उनका इंतज़ार जल्दी ख़त्म हो। इंतज़ार भी जब हद से ज़्यादा बढ़ जाए तो परेशान कर देता है।
         इंतज़ार करने वाले को ज़रुरत पूरी होने से ज़्यादा उसे पूरा करने वाले का इंतज़ार होता है क्योंकि अक्सर लोग यह समझने की भूल कर बैठते हैं कि उस एक चीज़ के अलावा ज़रुरत पूरी करने के लिए कोई विकल्प नहीं। वो उन परेशान चेहरों को देख रहा था जिन्हें उनकी बस का इंतज़ार था, बार-बार सड़क के दूसरे छोर को देख रहे थे। किसी भी बड़ी बस को आता देख उम्मीद बांध लेते थे और पास आकर वो निराश कर जाती थी। उन्हें सिर्फ अपनी उसी बस का इंतज़ार था जो उनका इंतज़ार कर रहे दूसरों का इंतज़ार ख़त्म कर सके। सामने खड़े ऑटो को सारे ऐसे नज़रंदाज़ कर रहे थे मानों वो वहां हों ही नहीं। इंतज़ार तो उन्हें बस का था न! भूल ही गए थे वो कि शायद आधे घंटे से अपनी बस का इंतज़ार करने से बेहतर होगा ऑटो से जल्दी जाकर बाकियों का इंतज़ार ख़त्म करना।
       उफ़! कितना उलझे हुए हैं सब आपस में, उसने खुदसे पूछा। अच्छा लगने लगा उसे यह सोचकर कि उसे किसी बस का इंतज़ार नहीं करना क्योंकि किसी को उसका इंतज़ार नहीं और उसे कहीं जाने की जल्दी नहीं। उसकी यह खुशी अचानक फीकी पड़ गई, चेहरे का रंग उतर गया और आंखें भर आईं। कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा, क्या सच में! पिछले तीन घंटे में किसी ने नहीं पूछा कहां हो, आ जाओ न। मोबाइल की स्क्रीन भी सिर्फ वक़्त बता रही थी, कोई मैसेज नहीं था वहां। इसका सीधा मतलब तो यह हुआ कि किसी को उसको ज़रुरत ही नहीं। उसे गुस्सा भी आया और रोना भी, मन बना लिया कि अब इस बेंच से तब तक नहीं जाएगा जब तक कोई उसे बुलाता नहीं।
         वक़्त बीत रहा था और उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। क्या सच में किसी को उसकी ज़रुरत नहीं, यह सच वो मानने को तैयार ही नहीं था। इससे पहले कि पलकों पर ठहरे आंसू बाहर आने की जगह बना पाते, अचानक वह हंस पड़ा। इस हंसी की वजह थी उसकी अपनी नादानी। इंतज़ार के बारे में सोचते-सोचते वो खुद इसके चंगुल में फंसकर गंवा बैठा था अपना चैन। वो भी तो इंतज़ार करने लगा था किसी के फ़ोन का, किसी मैसेज का, किसी के ये कहने का कि जल्दी आ जाओ, तुम्हारा इंतज़ार कर रहा हूं। बेवकूफी और बेफिक्री से उसने अपने आसपास देखा। बेंच, लोग, बसें और उनका इंतज़ार। समझने लगा था वो।
    किसे पता था वो यहां आएगा, बैठेगा और इंतज़ार के बारे में सोचेगा। शायद यह जगह उसका इंतज़ार करती रही हो, इस बेंच को उसका इंतज़ार रहा हो। अगर न भी रहा हो तो क्या उसे इसलिए यहां नहीं होना चाहिए था कि यहां कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। वह अपनी नादानी पर हंस रहा था।
       उसे अब किसी का इंतज़ार नहीं बनना था, क्योंकि खुद भी किसी का इंतज़ार नहीं करना था। इतना मतलबी नहीं था वो कि सिर्फ लोगों का इंतज़ार ख़त्म कर उनकी ज़रूरतें पूरी करे। उसे हर उस जगह रहना था जहां वह उन लोगों को हंसी बांट सके जो परेशान हैं और जिन्हें किसी और इंतज़ार की वजह से चैन-सुकून नहीं मिल रहा। वो हर किसी के साथ था, मदद कर सकता था। उसे कोई जल्दी भी नहीं थी क्योंकि कोई उसका इंतज़ार नहीं कर रहा था। अब उसका खुदका इंतज़ार भी ख़त्म हो चुका था, वो तो उसके मन में था ही नहीं। अब वो इस जगह से जाने को तैयार था, सचमुच तैयार। बढ़ते अंधेरे ने उसके मन में उजाला कर ही दिया था। चलने को तैयार, मुस्कराकर वो बेंच से उठा और पीछे मुड़कर बोला, 'सुनो! मेरा इंतज़ार मत करना।'

Saturday, 26 November 2016

मेट्रो सा मन मेरा,कुछ पल ठहरा पर चलता ही रहा


               दिल्ली में कहीं ज़मीन से ऊपर तो कहीं ज़मीन से नीचे दौड़ती मेट्रो, जिसे राजधानी की जीवन रेखा भी कहा जाता है, अपनी अलग जगह बना चुकी है। जब मैं पहली बार दिल्ली आया तो सबसे ज़्यादा रोमांचक मेरे लिए मेट्रो का सफर रहा। अब यह  रोमांच मेरी ज़रुरत बन चुका है और मेट्रो मेरी दोस्त। मेट्रो से अब ऐसा लगाव हो चुका है कि खुदमें इसको ढूंढने लगा हूं। मैंने पाया है मेट्रो को.. मुझमें। 
         मेट्रो मेरा मन है, जो बस चलता ही जाता है। उसी रफ़्तार से, उसी सीधे रास्ते पर, जहां से होकर जाता है मेरी ज़िन्दगी का सफर। एक के बाद एक आनेवाले स्टेशन मेरी ज़िन्दगी के पड़ाव होते हैं और इसमें चढ़ने वाली सवारियां मेरी यादें। यादें, कुछ अच्छी, कुछ बुरी, कुछ कमज़ोर, कुछ ताकतवर, अलग-अलग तरह की ढेर सारी यादें। यूं तो हर याद सुरक्षा जांच के बाद ही मेरे मन में जगह बनाती है, लेकिन इसके बावजूद भी कुछ ऐसी यादें अंदर आ ही जाती हैं जो आसपास की दूसरी यादों को भी परेशान कर देती हैं। अक्सर सोचता हूं काश! मैं खुद चुन सकता कि कौन सी याद मेरे मन में जगह बनाएगी और कौन सी नहीं। लेकिन मेरी मर्ज़ी नहीं चलती, जो याद पहले आती है जगह पाती है और मेरा हिस्सा बन जाती है। दरवाज़े बंद करके चल पड़ता है मन अगले पड़ाव की ओरक्योंकि ज़िन्दगी कभी नहीं रुकती। 


           जब मेट्रो ज़मीन से नीचे चलती है तो मन मानो शांत होता है। न यादों को बाहर की तेज़ धूप या यूं कहूं दुनिया वालों की नज़र का एहसास होता है और न फ़िक्र। जब मेट्रो सा मन लोगों की नज़र में आने लगता है और यादों को नज़र लगने का डर रहता है तो मेरी भावनाओं की ठंडक उसकी यादों को परेशान नहीं होने देती। इन यादों को सुरक्षित समेटे और समझदारी का अनाउंसमेंट सुनाते बढ़ता जाता है मन। 
              न तो मैं रुका और न ही इन यादों को कभी रोकने की कोशिश की। नई यादों को जगह देने के लिए पुरानी यादों को जगह खाली करनी ही होती है। पुरानी यादें छोड़ता चलता हूं क्योंकि कई बार यह भी ज़रूरी हो जाता है। एक पल ऐसा भी आता है कि मन की मेट्रो में यादों के लिए जगह नहीं बचती और मैं दरवाजे बंद कर लेता हूं। छोड़ देता हूं बाकी यादों को पीछे। यादों की भीड़ मुझमें जगह बनाने की भरसक कोशिश करती है, लेकिन क्या करूं सारी यादें तो नहीं बटोर सकता। यह भी सोचता हूं कि शायद कोई अच्छी या फिर ऐसी याद पीछे रह गई हो जिसे मेरी ज़्यादा ज़रुरत थी। कहते हैं जो पीछे छूट जाए उसके बारे में सोचकर दुखी होने से अच्छा है कि आगे आने वाले पड़ावों से यादें साथ ले ली जाएं, मैं भी  यही करता हूं। 
                   मेट्रो की लाइनें और उनके रंग याद दिलाते हैं जिंदगी के रंगीन पहलू। लाल मेरा प्यार, पीला मेरी दोस्ती और नीला मेरा परिवार। सफर में राजीव चौक सा एक पड़ाव ऐसा भी आता है। जब ये तीनों लाइनें आपस में मिलती है और इतनी ढेर सारी यादें पास होती हैं कि उलझन सी होती है। दोस्ती, परिवार और प्यार के बीच अंतर कम हो जाता है। कई बार तो यादें भी नहीं समझ पातीं कि उन्हें दोस्ती वाली लाइन में जाना है या प्यार वाली। लेकिन इस सबसे अलग मेट्रो चलती रहती है। राजीव चौक ही क्यों न हो, यादों के पास ज़्यादा वक़्त नहीं होता, उन्हें भी पता होता है कि अगर छूट गईं तो लंबा इंतज़ार करना होगा। 
           मेरे मन की मेट्रो जैसे-जैसे आखिरी स्टॉप या यूं कहूं मेरी मंज़िल तक पहुंचती जाती है, पुरानी यादें तो पीछे छूटती चलती ही हैं, नई यादें भी कम जगह बनाती हैं। मंज़िल पर पहुंचकर मैं बिल्कुल खाली हो जाता हूं लेकिन मन का खालीपन वापस भरने का मन करता है। मैं लौटना चाहता हूं वापस उसी सफर पर, उन्हीं पड़ावों पर। समेटना चाहता हूं यादें एक बार फिर। मैं ठहरता जरूर हूं पर रुकता नहीं, क्योंकि मैं मेट्रो हूं, मन हूं। अरे हां, मेट्रो सा मन हूं।

Monday, 3 October 2016

बदल रहा हूं...

क्या कभी खोए हो तुम,
भीड़ में अपनों के बीच!
कभी रोये हो तुम,
या कभी टूटकर सोए हो तुम।

शायद नहीं, पर मैं रोता हूं...
इसलिए नहीं कि खोना नहीं चाहता।
इसलिए नहीं, कि बिखरे मोती पिरोना नहीं चाहता।
इसलिए, क्योंकि हर बार ये माला टूट जाती है।
बिखर जाते हैं मोती फिर से, आस छूट जाती है।

चुनौतियां पसंद हैं मुझे, मिलती ही जाती हैं।
एक पल मुस्कराकर, ज़िन्दगी फिर रूठ जाती है।
खुद को साबित करते करते, बहुत थक जाता हूं।
भर आती हैं आंखें जब, मुस्कराकर छुपाता हूं।

जी रहा हूं ज़िन्दगी, या फिर ये मुझे जी रही है।
यादों के परदे का वो छेद, उम्मीदें सी रही हैं।
सच्ची और झूठी बातें अब तक एक सी रही हैं।
आंखों का नहीं पता, आंसू क्यों पी रही हैं!

सच और झूठ के इस फेर से अब निकल रहा हूं,
भारी हैं कदम, बढ़ते नहीं, फिर भी चल रहा हूं।
कभी-कभी ऐसा लगता है खुद को ही छल रहा हूं,
या फिर क्या सच में, 'मैं बदल रहा हूं।'
-: प्राणेश तिवारी 

Friday, 23 September 2016

'मैं लड़की हूं'

माना मैं एक लड़की हूं,
पर हूं तो एक इंसान।
क्या फ़र्ज़ नहीं बनता है तुम्हारा,
कि करो मेरा सम्मान...

भोली हूं मैं, नादान हूं।
पर क्या यही मेरी गलती है!
मुझे बेजान समझना, और खेल जाना मुझसे।
इससे तुम्हें क्या ख़ुशी मिलती है?

दोस्त माना था तुम्हें, साथी माना था।
मुस्कान तुम्हारी सच्ची लगी, ऐसे पहचाना था।
पर क्या पता था, तुमने एक मुखौटा लगाया है।
अपने बेशर्म चेहरे को भोलेपन से छुपाया है।

मैंने नहीं दिया हक़ किसी को, जो चाहे जताने का।
मेरे बारे में कुछ भी बोलने का, मज़ाक बनाने का।
पर फिर भी ऐसा करते हो, तो शर्म करो इंसान हो।
शक होता है अब मुझको भी, तुम मानस की संतान हो।

तय करते हो मेरा चरित्र और नाम मुझे तुम देते हो।
एक पल में मन में अपने तुम, जो चीर मेरा हर लेते हो।
कायर हो, तुम हो बेईमान, काश ये खुद को समझाओ।
बेहतर होगा चुल्लू भर पानी में डूबो और मर जाओ।
                           
                                             : प्राणेश तिवारी

Thursday, 22 September 2016

'उधार'

शायद उधार अभी बाकी है,
नहीं पैसे नहीं! ना कोई सामान!
बाकी है तुम्हारे पास फिर भी बहुत कुछ मेरा।
याद रहेगी साथ बीती शाम, साथ हुआ सवेरा।

यूं तो मैं देता नहीं हर किसी को वक़्त अपना,
दिया तुम्हें, देखा तुम्हारे साथ, तुम्हारा सपना।
कर सकोगे वापस वो वक़्त मुझे!
कहां से लाओगे वो पल जो चले गए?

हां, सिर्फ मैं ही नहीं तुम भी तो कर्ज़दार हो।
ऐसा लगता है मुझपर कम तुमपर ज़्यादा उधार हो।
बांटे थे जो आंसू तुम्हारे, वापस नहीं मांगूगा।
पर खुद से वादा है, अब किसी का दर्द नहीं बांटूगा।

क्या वो तुम ही थे जो कंधे पर सिर झुकाकर रोए थे,
हां तुम ही तो थे जो मुझे दोस्त मान बेफिक्र सोए थे।
याद है न! कि ये भी भूल गए हम साथ थे।
अंधेरे रास्ते पर हाथों में हाथ थे, जज़्बात थे।

बहुत भोले हो मेरे दोस्त अच्छे से जानता हूं।
पर यह भी सच है कम लोगों को अपना मानता हूं।
तुम उन्हीं कम लोगों में से एक थे, क्योंकि नेक थे।
समझ जाना था पहले ही तुम्हें, पर समझे देर से।

हां! बुरा हूं मैं! जल्दी रूठ जाता हूं।
आवाज़ नहीं आती फिर भी टूट जाता हूं।
रोता हूं अकेले में पर सामने गुस्सा दिखाता हूं।
एक बार गया तो लौटकर वापस नहीं आता हूं।

-: प्राणेश तिवारी

Sunday, 17 July 2016

ताकि सिर्फ नाम बनकर न रह जाए 'शीरोज हैंगआउट'

         एसिड अटैक पीडि़त महिलाओं के हौसले को हिम्मत देने के मकसद से राजधानी में की गई पहल फीकी पड़ती नजर आ रही है। ताजनगरी आगरा में सफल रहे प्रयास की तर्ज पर लखनऊ में भी 'शीरोज हैंगआउट' कैफे खोला गया था। महिला दिवस के मौके पर आठ मार्च को मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने गोमतीनगर स्थित इस कैफे का उद्घाटन किया था। कैफे की खासियत है कि यहां काम करने वाला स्टाफ एसिड अटैक पीडि़त महिलाओं का है। चार महीने से ज्यादा बीत जाने के बाद आलम यह है कि यहां आना तो दूर, आधा शहर इस जगह का नाम तक नहीं जानता। 'शीरोज हैंगआउट' अंबेडकर पार्क  के ठीक सामने है लेकिन हर शाम पार्क  में जुटने वाली सैंकड़ों की भीड़ को इस जगह के बारे में नहीं पता।


इतना ही नहीं, आसपास रहने वाले लोग भी शीरोज हैंगआउट के नाम से अनजान दिखे। वजह भी सीधी सी है न तो इस जगह के बारे में कोई प्रचार किया गया और न ही इसकी खासियत लोगों तक पहुंची। पिछले दिनों आयोजित मैंगो फेस्टिवल तो होर्डिंग्स के जरिए शहर के कोने-कोने में पहुंच गया, लेकिन शीरोज हैंगआउट की खासियत बताती कोई होर्डिंग शहर में नहीं दिखती। सोमवार को जब मैं शीरोज हैंगआउट के हालात का जायजा लेने पहुंचा तो इक्का-दुक्का लोगों के अलावा बाकी कुर्सियां खाली दिखाई दीं। यह कैफे तेजाब हमले का दर्द झेल चुकी महिलाओं के चेहरे पर आत्मविश्वास और खुशी लाने के मकसद से खोला गया था। लोगों से मिल रही प्रतिक्रिया इसके लिए नाकाफी दिखती है।

           शीरोज हैंगआउट के मैनेजर पवन सिंह ने बताया कि यहां प्रदेश भर के सहारनपुर, कासगंज, फैजाबाद जैसे जिलों से आठ विक्टिम काम कर रही हैं। पहले कैफे सिर्फ शाम पांच से रात 10 बजे तक खुलता था, अब पूरे दिन खुला रहता है। हालांकि लोगों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया नहीं मिल रही है। उन्होंने बजट की कमी को बड़ी वजह मानते हुए कहा कि गर्मी में यहां एसी होनी चाहिए। खुला स्पेस होने की वजह से गर्मी और धूप से बचत नहीं हो पाती, ठंड से पहले यह इंतजाम भी पक्के होने चाहिए। ग्लासेज भी लगने है जिसके लिए अगले एक दो महीने में काम शुरू हो जाएगा। इसके अलावा प्रचार के लिए पैम्प्लेट भी छपवाए जा रहे हैं। प्रोजेक्ट डायरेक्टर भूपेंद्र ने भी माना कि लोग कम आ रहे हैं और कैफे को एडवरटाइजमेंट की जरूरत है। कैफे में काम करने वाली प्रीती, अंशू, शांति, प्रमोदिनी, रुपा और रेशमा को आने वाले दिनों में कैफे में भीड़ बढऩे की उम्मीद है।


                                                                       रेस्टोरेंट से कहीं ज्यादा है शीरोज हैंगआउट 

शीरोज का नाम अंग्रेजी के दो शब्दों 'शी' और 'हीरोज' को मिलाकर रखा गया है। यह जगह समाज के ऐसे हीरोज से रूबरू होने का मौका देती है जिन्होंने अपनी पहचान खोकर भी जिंदगी से हार नहीं मानी। यह हीरोज खुद को पीडि़त नहीं मानते, दूसरों को हिम्मत देने का माद्दा रखते हैं। शीरोज हैंगआउट केवल रेस्टोरेंट या कैफे न होकर यहां आने वाले कई लोगों के लिए प्रेरणास्रोत बना है। इस कैफे में आर्ट गैलरी, बुक रीडिंग सेक्शन के अलावा वर्क शॉप और प्रदर्शनी के लिए स्पेस भी है जहां इन वर्कर्स के  हाथों का हुनर और कौशल दिखता है। यहां आने वाले लोग इन प्रदर्शनियों में लगी कलाकृ तियां देखते हुए और किताबें पढ़कर भी अपना समय बिता सकते हैं। पहले यह कोशिश आगरा में की गई जहां देश-विदेश से आने वाले हजारों पर्यटकों से बहुत अच्छी प्रतिक्रिया मिली। राजधानी में जो चंद लोग शीरोज आते हैं उनके लिए यह रेस्टोरेंट का एक विकल्प है। मैनेजर पवन कहते हैं कि यहां सिर्फ टाइमपास ही नहीं बहुत कुछ इनोवेटिव किया जा सकता है। जो लोग हमसे जुडऩा चाहते हैं और बातें साझा करते हैं, यहां से बहुत कुछ लेकर और प्रेरित होकर जाते हैं।

                   दिल से पसंद है लखनऊ, पर जाने क्यों लोग कम आते हैं : फरहा खान 

        मूल रूप से फर्रुखाबाद से जुड़ी फरहा खान 'शीरोज हैंगआउट' की शुरूआत से यहां काम कर रही हैं। उनका परिवार दिल्ली में रहता है और सभी भाई बहनों में वह सबसे बड़ी हैं। कहती हैं कि मुझे बहुत कम शहर पसंद आते हैं लेकिन लखनऊ दिल से पसंद है। मैं भूलभुलैया घूमने गई हूं और मुझे यहां की इमारतें बहुत पसंद हैं। लखनऊ की तहजीब सबसे खास है लेकिन जमाने का असर इस पर भी हुआ है। शीरोज से अपना लगाव जताते हुए उन्होंने बताया कि हमारे लिए यहां रहना परिवार में रहने जैसा है। अभी यह परिवार छोटा है, वक्त के साथ बड़ा हो जाएगा। फरहा ने बताया कि वैसे तो आगरा के शीरोज के मुकाबले यहां लोग न के बराबर आते हैं। फिर भी कई ऐसे लोग हैं जो सप्ताह में एक बार या महीने में एक बार हमारे लिए वक्त निकालकर हमसे मिलने आते हैं, अच्छा लगता है। सुरेंद्र राजपूत यहां रोज आने वालों में से हैं। फरहा लोगों के कम आने के पीछे अच्छी ब्रांडिंग न होने को वजह मानती हैं। उन्हें लगता है कि शीरोज हैंगआउट से लोगों को जोडऩे के लिए अगर ब्रांडिंग पर काम किया जाए तो लोग यहां आयेंगे भी और इसके बारे में जानने को उत्सुक भी होंगे। 

                  चाहती हूं लोग हमसे जुड़ें, इसे सिर्फ कैफे समझकर न आएं : अंशू


अंशू ने इस साल इंटर किया है और अब आगे पढऩा चाहती हैं। कहती हैं मैं खूब पढऩा चाहती हूं और अपनी पहचान बनाना चाहती हूं। यूं तो घर में छोटी हूं फिर भी जिम्मेदारी समझते हुए दूसरों की मदद करना चाहती हूं। बिजनौर जिले की अंशू पहले आगरा और अब लखनऊ में शीरोज से जुड़ी। उन्हें इस बात की खुशी है कि 'शीरोज हैंगआउट' ने उन्हें पहचान दी है। बड़े गर्व से कहती हैं कि अब हमें चेहरा छुपाने की जरूरत नहीं, और वैसे भी हमने कुछ गलत नहीं किया तो क्यों छुपते फि रें। लोगों से हैंगआउट को मिल रही प्रतिक्रिया के सवाल पर वह साफ कहती हैं कि अगर कोई आता है तो कपल्स। उन्हें इस बात से भी शिकायत है कि लोग यहां अपना फूड इंज्वाय करते और चले जाते हैं, किसी को इस बात से फर्क  नहीं पड़ता कि वह शीरोज में हैं। अंशू ने बताया कि आगरा में बच्चा-बच्चा शीरोज हैंगआउट के नाम से वाकिफ है, जबकि यहां आने वालों को इसके अलग होने से कोई मतलब नहीं। शायद यही वजह है अंशू आगरा को ज्यादा पसंद करती हैं। अपनी दोस्त रितु की उन्हें बहुत याद आती है। बेहद जिंदादिल अंशू मुस्कराते हुए कहती हैं,'लखनऊ से बहुत उम्मीदें हैं। पता नहीं यह शहर हमें समझने में इतना वक्त क्यों लगा रहा है।'

Tuesday, 12 July 2016

'तोता-मैना स्थल' बन चुके शहर के पार्कों में बहती प्रेम-रस की धारा...

          सुबह-सुबह ठंडी हवा और हरियाली में टहलना सेहत के लिए बहुत फायदेमंद होता है. शहरों में कंक्रीट की इमारतों की भेंट चढ़ती हरियाली को बचाने और लोगों को स्वस्थ रखने के लिए पार्क बनाए गए. सुबह शाम यहां टहलने आने वालों की संख्या सैकड़ों में है. हर दूसरा मधुमेह का मरीज डाक्टर की सलाह मानकर कार से ही सही लेकिन पार्क तक ज़रूर आता है. लेकिन जितना मधु इन पार्कों में है, उसके दर्शन मात्र से ही आप बीमार हो सकते हैं.

         मुद्दा जरा अटपटा लग सकता है, लेकिन न आप और न ही मैं इससे अंजान हैं. मेरा एक साथी मजाकिया लहजे में अक्सर कहता है दुनिया में प्यार कहीं है, तो पार्कों में! वैसे तो  घूमने का आनंद गाँवों में कहीं भी मिल जाता है, लेकिन उस रोज ऑफिस के असाइनमेंट के चलते एक पार्क के भ्रमण का सुअवसर मिला. हम गन्दगी और अव्यवस्था से जड़ी खबर ढूंढने निकले थे, प्रवेश करते ही साथी का जुमला याद आ गया.


        पार्क में ओर प्रेम की धारा बह रही थी. कहीं पेड़ की छांव तो कहीं हरी घास पर प्रेम-पुजारी अपनी साधना में लीन थे. दीन-दुनिया से बेफिक्र उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि आसपास कौन आ-जा रहा है. लग रहा था जैसे बिना कैमरे और डायरेक्टर के ढेर सारी रोमांटिक फिल्मों की शूटिंग एकसाथ चल रही है. शायद ये हास्यास्पद लगे लेकिन अब मैं खुदको असुरक्षित महसूस कर रहा था. नज़रें झुकाकर किसी अपराधी की तरह मैं पार्क में प्रवेश कर रहा था क्योंकि इस प्रेम रस से ज़्यादा ज़रूरी मेरे लिए अव्यवस्था और गन्दगी की खबर निकालना था.

        आगे बढ़कर देखा तो पार्क में सफाई का आलम यह था कि रात को पेड़ों से गिरे पत्ते भी भोर अंधेरे साफ़ कर दिए गए थे. झाड़ू से बने लकीरों के निशान ज़मीन पर अब भी नज़र आ रहे थे. घास काटने की मशीनें आवाज़ करके कर्तव्यनिष्ठा दिखा रही थीं और खबर जैसा यहां कुछ भी न था. शायद यह मेरी ही गलती थी कि मैंने शहर का एक बड़ा और नामी पार्क चुन लिया था. फिर भी यहां आसपास के माहौल से ऐसा लग  रहा था मानो मैं किसी गलत गली में आ गया हूँ.

       देर न करते हुए खाली हाथ मैं वहां से लौटने को हुआ तभी माथा ठनका. प्रेम साधना में लीन युगलों की तपस्या को भंग करने  के लिए अप्सराओं रुपी गार्ड नदारद थे. गेट को छोड़कर पूरी पार्क में किसी सुरक्षा गार्ड की परछाईं तक नहीं दिखी तो मैंने तफ्तीश करने का मन बनाया. पता चला दिन और रात दोनों में 24-24 गार्ड तैनात होने चाहिए, लेकिन शायद वो भी प्रेमलीला में बाधा पहुंचाकर पाप के भागी नहीं बनना चाहते.

          लगभग हर पार्क में ऐसे दृश्य अब आम हो चलें हैं. इसका परिणाम यह है कि कोई भी सपरिवार पार्क में पिकनिक मनाने नहीं आना चाहता. मैं भी ऐसा करने की सलाह नहीं दूंगा. इससे तो बेहतर है कि आप पूरे परिवार के साथ सेंसरबोर्ड से 'ए' सर्टीफिकेट पाने वाली 'उड़ता पंजाब' फिल्म देख लें. आधुनिकता के नाम पर अश्लीलता फैलाना अगर कहीं से भी तर्कसंगत लगता हो तो मैं इच्छुक जन को बहस के लिए आमंत्रित करना चाहूंगा.

           पार्क से निकलने से पहले बाहर बैठी महिला गार्ड से बातचीत में अलग ही पहलू सामने आया. परिवारों के पार्क में न आने के सवाल पर हंसते हुए बोलीं,'ये तो कपल-पार्क है न बाबू.' स्पष्ट जवाब देते हुए उन्होंने कहा 'मैं तो साफ़ बोलती हूँ. अगर ये प्रेमी पार्क न आएं तो पार्क कल ही बंद हो जाएगा. सुबह टहलने आने वालों ने मासिक पास बनवा रखे हैं, ऐसे लोग भी सैकड़ों में हैं. दिन भर पार्क में जमे रहने वाले जोड़ों की वजह से रोजाना हज़ारों टिकट बिकते हैं. उल्टी-सीधी हरकत करते पकड़े जाने लड़के-लड़कियां अपने दोस्तों को मम्मी-पापा बनाकर उनसे बात करवा देते हैं.'

           पार्क में बढ़ती प्रेमियों की भीड़ पर भी उन्होंने सटीक वजह बताई. कहा,'बड़े-बड़े घर के  लड़के-लड़कियां आते हैं.  मॉल जाएंगे तो पिक्चर देखने और खाने में कम से कम हज़ार पांच सौ रूपए का खर्च आएगा. यहां सुबह नौ से रात नौ बजे तक खुले पार्क में पांच रुपए में काम बन जाता है. बहुत ज़्यादा तो सौ-दो सौ रुपये तक कुछ खा पी लेते हैं. स्कूल-कॉलेज यूनीफार्म में लड़के-लड़कियां रोजाना आते हैं और टोकने पर लड़ने पर उतारू हो जाते हैं.

           यह लेख कई आधुनिक सोच वाले और मॉडर्निटी की पैरवी करने वालों को आपत्तिजनक लग सकता है. उनसे मैं पहले ही स्पष्ट कर दूं, आधुनिकता और विस्तृत सोच का पार्क में किसी की गोद में सिर झुकाने से कोई वास्ता नहीं है. आधुनिकता आचरण और दिखावे से पहले मानसिकता में दिखनी चाहिए. बेशर्मी आधुनिकता का पर्यायवाची  न कभी था और न हो सकता है.


           एक उपाय जो समझ आता है वो है पार्कों में सीसीटीवी कैमरे लगवाना और सुरक्षा गार्ड्स की सक्रियता. पार्क जिस उद्देश्य से बनाए गए थे वह पूरे हों तो परिणाम सुखद होंगे. वरना रोज़ प्यार के नाम पर चल रही अश्लीलता और इससे जुड़े अपराधों को नज़रअंदाज़ करते हुए पार्कों का नाम 'तोता मैना स्थल' ही कर दिया जाना चाहिए. साथ ही क्लबों की तरह इनमें भी बोर्ड लगने चाहिए,'एंट्री ओनली फॉर कपल्स!'
(सभी तस्वीरें: गूगल से साभार)

Sunday, 10 July 2016

हमारी सोच पर हावी होता सोशल मीडिया

           हमारे एक पुराने मित्र मिलते ही बिफर पड़े, 'कैसे पत्रकार हो भाई आप! स्विस बैंक में खाताधारकों के नाम पब्लिक हो गए और आपको खबर तक नहीं!' उनका दावा और गुस्सा देख एक पल को हम भी भौचक्के रह गए. इतनी बड़ी बात हो गयी और मुझे पता कैसे नहीं चला, मेरे तो पैरों तले ज़मीन खिसक गयी. इससे पहले कि मैं उनसे कुछ पूछता, गुस्से में मुट्ठियां भींचते उन्होंने मेरी सारी आशंकाओं पर विराम लगा दिया. बोले,'व्हाट्सएप वगैरह चलाते हो कि नहीं? तुम मीडिया वालों ने तो पैसा खा रखा है, तुम क्यों सच बताओगे.'


हां, सही तो है. हम क्यों सच बताने लगे, सच बताने और हर छुपी बात सामने लाने का ठेका तो व्हाट्सएप, फेसबुक और ट्विटर पर आपके हितैषियों ने ले रखा है. जो कभी स्विस बैंक के खाताधारकों में पूर्व राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को शामिल कर देते हैं तो कभी हेलन की फोटोशॉप तस्वीर को कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी की जवानी से जोड़ देते हैं. इतना ही नहीं ये हितैषी ही आपको ऐसा मैसेज भेज सकते हैं, जिसे तीन ग्रुप्स में फॉरवर्ड करते ही आपका फ़ोन 100 प्रतिशत चार्ज हो जायेगा, या फिर आपको 5 जीबी डेटा फ्री मिलेगा. हमारे बस में तो इतना सब नहीं है.
          बेशक आप समझ चुके होंगे मेरा इशारा किस तरफ है! यूं तो सोशल मीडिया संचार क्षेत्र में क्रान्ति लेकर आया है. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इसका उपयोग अफवाहों को फैलाने और झूठा प्रचार करने के लिए बड़े पैमाने पर किया जा रहा है. यही नहीं, इससे जुड़े कुछ उदहारण शायद आपको बेवकूफाना लगें लेकिन करोड़ों लोग जानबूझकर ऐसी बेवकूफियां करते हैं और दूसरों को भी अपने कुटुंब में शामिल करना चाहते हैं.
         सिर्फ एक मैसेज और मेरे दोस्तों ने कुरकुरे खाना काम कर दिया, फ्रूटी पीनी छोड़ दी. इस मैसेज में कहा गया था कि कुरकुरे में प्लास्टिक है, सबूत पेश हुआ कि आप चाहें तो इसे जलकर देख लें, ये प्लास्टिक की तरह जलता है. और तो और कहा गया कि फ्रूटी की फैक्ट्री में कुछ एचआईवी पॉजिटिव वर्कर्स ने अपना खून फ्रूटी में मिला दिया है, तो सावधान आपको भी एचआईवी हो सकता है. सच तो यह है कि कुछ भी खाने-पीने से एड्स का वायरस नहीं फैलता, कुरकुरे भी प्लास्टिक नहीं स्टार्च की वजह से अलग तरह से जलता दिखता है. इन ख़बरों का सच से कोई वास्ता नहीं था, लेकिन बड़े तबके ने इन पर विश्वास कर लिया. सिर्फ निरक्षर और पिछड़ा वर्ग ही नहीं, मॉडर्न सोसाइटी के पढ़े लिखे लोगों ने भी इस पर यकीन किया. 
           एक और बड़ी खबर व्हाट्सएप, फेसबुक सोशल मीडिया के ज़रिये तेजी से फैली, इसमें कहा गया कि राष्ट्रगान 'जन गण मन' को यूनेस्को ने बेस्ट राष्ट्रगान का खिताब दिया है. खबर फैलने की देरी थी कि बधाइयों का दौर शुरू हो गया. भाजपा सांसद मीनाक्षी लेखी ने ट्विटर पर बधाई भी दे डाली. बाद में यह खबर भी झूठ निकली. कुछ इसी तरह एक तस्वीर शेयर की जाने लगी जिसे नासा द्वारा दीवाली पर्व के वक़्त ली गई भारत की तस्वीर बताया जाने लगा. लोग धड़ाधड़ शेयर करते गए और मूर्ख बनते गए. जबकि इसका सच  तक कोई वास्ता नहीं था. ये तस्वीर भी फोटोशॉप से बनाई गई थी.
          ऐसे एक नहीं ढेरों उदाहरण मिलेंगे, मैसेज भी ऐसे जो कोई सपने में नहीं सोच सकता. यह फोटो शेयर करें, इसमें बनी मक्खी उड़ जाएगी. कमेंट में 'उठ' टाइप करें और तस्वीर में रेलवे ट्रैक पर लेटी लड़की खड़ी हो जाएगी. बेशक यह बेवकूफाना लगे लेकिन हैरानी होती है जब ऐसी तस्वीरों पर हज़ारों कमेंट और शेयर्स मूर्खता करने वालों की गवाही देते नज़र आते हैं. हमारी यह बेवकूफी कई बार किसी की छवि को धूमिल कर देती है, गलत खबर को लोगों तक पहुंचा देती है. सांप्रदायिक दंगों के रूप में भी ऐसी अफवाहों के दुष्परिणाम सामने  आते रहे हैं.
         बड़ा सवाल है कि हम ऐसा क्यों करते हैं? दोस्त को घंटों समझाने के बाद जब इस बात का जवाब पूछा तो बोले शेयर करने में हमारा क्या जाता है! किसको फुर्सत है जो हर मैसेज की की जांच और तफ्तीश करे.
 सच है, हमारा क्या जाता है! जाता कुछ भी न हो जनाब, तब भी आप उन मूर्खों की लिस्ट में जगह बना लेते हैं जिनमें तर्कशक्ति का अभाव है. क्या सही है और क्या गलत, क्या सच है और क्या झूठ, बिना पूरी बात जाने उसे दूसरों के हवाले करना शायद आपकी नज़र में गलत न हो, लेकिन खतरनाक ज़रूर है.

         अगर आप भी ऐसे मैसेज और तस्वीरों पर पल में यकीन कर इन्हें फॉरवर्ड और शेयर करने वालों में से हैं तो सोशल मीडिया आपके विचारों और सोचने-समझने की  प्रभावित कर रहा है. ज़रूरी है कि अभी संभल जाएं, वरना कल को स्विस बैंक के खाताधारकों की लिस्ट में अगर आपका नाम भी वायरल होने लगे तो मुझसे न कहिएगा. आपका एक मैसेज न फॉरवर्ड करना बड़ा कदम होगा, जो झूठ शायद किसी बड़े दंगे या घटना की वजह  बन सकता था, सिर्फ आपकी वजह से ख़त्म हो जाएगा.

        बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं लगता सच जानने में! अपने मैसेज को ले जाएं और गूगल सर्च के हवाले कर दें, थोड़ी ही देर में उसका सच सामने होगा. अगर आपके पास इतना वक़्त नहीं है, तो बुरा न मानिए लेकिन उसे दूसरों तक पहुंचाने  हक़ नहीं. अब हर कोई आप जितना स्मार्ट नहीं होता न, जो सच और झूठ के भेद को समझ ले. बेहतर होगा अगर अब आप सोशल मीडिया को यूज़ करें न कि वह आपको इस्तेमाल कर रहा हो.

Thursday, 19 May 2016

तो क्या आरक्षण ने छीना 'अंकित' का हक! टीना डाबी से ज्यादा नंबर, फिर भी डिस्कवालीफाइड?

'आरक्षण' एक शब्द, एक व्यवस्था और उससे जुड़े विवाद! कभी आरक्षण के लिए आगजनी, तो कभी रेलवे ट्रैक जाम... ये व्यवस्था देश की शिक्षा और समानता के अधिकार को किस तरह प्रभावित कर रही है इसका सही मायने में हम अंदाज़ा भी नहीं लगा पाए हैं.
   
 UPSC टॉपर टीना डाबी का नाम सुर्ख़ियों में कई दिन  तक छाया रहा और हम भी उनकी इस कामयाबी पर उन्हें सलाम करते हैं. लेकिन इसी बीच आज सामने आया एक नाम 'अंकित श्रीवास्तव', एक नाम जो दावा कर रहा है कि उसे टीना डाबी से 35 नंबर ज्यादा मिले हैं. केवल आरक्षण व्यवस्था के चलते 'कट-ऑफ' ज्यादा होने की वजह से अंकित इस परीक्षा में असफल करार दिए गए हैं.
    अंकित ने यह बात अपने फेसबुक प्रोफाइल पर लिखी. उन्होंने बस यूं ही टीना की मार्कशीट देखी तो सन्न रह गए. अंकित ने अपनी पोस्ट में लिखा,
      "अभी अचानक पढाई करते-२ एकदम से मन हुआ की किताबो को आग लगा के परिवार समेत इस अंदर तक सड़ चुके देश को छोड़ कर हमेशा-2 के लिए विदेश भाग जाऊं और वहीँ सुकून से नौकरी करूँ। अचानक ऐसे ख्याल आने का कारण पढाई से मन उचटना या बोर हो जाना कतई नहीं था, दरसल अभी युँ ही बैठे-2 UPSC की वेबसइट पर अपने पिछले साल के असफल प्रयास की मार्कशीट निहार रहा था….तभी जाने कहा से ख्याल आया की लाओ इस वर्ष की टॉपर टीना डाबी की मार्कशीट भी देखी जाये।बस फिर क्या था फटाफट रोल नंबर गूगल किया और मैडम की भी मार्कशीट खोल डाली और उसके बाद जो सामने दिखा वो ही शायद मेरी इस घनघोर निराशा और गुस्से का कारण बना। 
मेरे आश्चर्य की इंतहा नहीं रही जब मैंने देखा की मैडम का CSP 2015 स्कोर है 96.66 और मेरा अर्थात अंकित श्रीवास्तव का स्कोर है 103.5, इतना ही नहीं पेपर 2 में मेरे 127.5 अंक है और माननीय टॉपर महोदया के 98.7 (दोनों मार्कशीट्स का स्क्रीनशॉट इस पोस्ट में है, और उसे UPSC की वेबसाइट पे रोल नंबर्स की सहायता से जांचा भी जा सकता है) अर्थात मैंने CSP -2015 में टॉपर महोदया से 35 अंक ज्यादा प्राप्त किये हैं।आरक्षण-व्यवस्था की महिमा कितनी चमत्कारिक है, सच्चे अर्थों में आज इसका एहसास हुआ। याद रहे की ऐसा भी बिलकुल नहीं है की टीना डाबी समाज के वंचित तबके से सम्बन्ध रखती हैं। उनके माता और पिता दोनों इंजीनियरिंग सेवा के अधिकारी रहे हैं और वह भी हम जैसो की तरह एक खाते-पीते संपन्न मध्यम-वर्ग से आती हैं? ऐसे में बड़ा प्रश्न यह उठता है की क्या इसी प्रकार के सामजिक न्याय की अवधारणा पर इस देश का निर्माण हुआ है? मैं अपनी संभावनाओं में जरुरी सुधार कर आईएस बन सकूँ या ना बन सकूँ, पर क्या हमारी दिशा और दशा सही है? क्या हमारी वर्तमान चयन-प्रक्रियाएं आज सर्वश्रेष्ठ को चुनने की क्षमता रखती हैं? टीना डाबी सिर्फ एक उदाहरण हैं,
उन्होंने जो किया है उसके लिए उनके प्रयासों की जितनी भी प्रशंसा की जाये वो निःसन्देह कम है, यहाँ उद्देश उन्हें या उनकी उपलब्धियों को कमतर आंकना कतई नहीं है, और न ही अपनी कुंठा तुष्ट करना है । परन्तु एक प्रश्न यह भी निसंदेह उतना ही महत्वपूर्ण है की मेरे जैसे सैकड़ो निहायत ही क्षमतावान और समर्पित नौजवान, जो अपनी बड़ी-2 नौकरियां ठुकरा कर अपने जीवन के सबसे महत्वपूर्ण दिनों के रोज 12-14 घंटे सिर्फ पढाई करते हैं, वो आज किसके द्वारा किये गए अन्यायों का दंश झेल रहे हैं? क्या आरक्षण व्यवस्था का पुनरावलोकन करने और उसे वर्तमान जातिगत व्यवस्था से अलग कर ‘वास्तविक आर्थिक और सामजिक पिछड़ेपन’ से सम्बद्ध करने का राजनैतिक साहस किसी में नहीं है? दुःखद, हमसे ज्यादा इस देश के लिए दुर्भागयपूर्ण है ये स्थिति!"
   अंकित का यह पोस्ट अपने आप में कई सवाल छोड़ता है. क्या अंकित सिर्फ इस लिए असफल रहा क्योंकि वह सामान्य वर्ग का है. क्या योग्यता से ज्यादा उसकी जाति से फर्क पड़ता है. अंकित ने साफ़ लिखा कि मुझे टॉपर कहलाने का शौक नहीं, लेकिन उसकी मेहनत को यह कहकर नज़रंदाज़ कर देना कि वह सामान्य है, कहीं से भी तर्कसंगत नहीं लगता. अपनी अगली पोस्ट में अंकित ने इस बात का साफ़ शब्दों में ज़िक्र किया, साथ ही अपनी जन्मतिथि बताकर अपनी मार्कशीट पब्लिक भी कर दी.

 इसके बाद से ही अंकित का पहला पोस्ट फेसबुक ने 'कम्युनिटी स्टैण्डर्ड के अगेंस्ट' कहकर हटा दिया. हो सकता है इसके पीछे कोई दबाव रहा हो. शायद किसी को अभी से यह डर सताने लगा हो कि कहीं इस पोस्ट की वजह से शांत बैठे एक बड़े वर्ग के खून में उबाल न आ जाए.
 अंकित जैसे कितने ही युवा सिर्फ इस दोगली व्यवस्था की वजह से आज भी मात खा रहे हैं. अंकित के साथ मेरी सहानुभूति नहीं, मुझे उसपर गर्व है. शर्म तो इस व्यवस्था से आती है, और सहानुभूति उस मजूर नेतृत्व से है, जिसमें इस अनुचित व्यवस्था को बदलने का माद्दा नहीं. शायद यही समय है... विचार करो!

नोट- मैंने खुद अंकित और टीना डाबी की मार्कशीट्स देखी और कम्पेयर की हैं. और ये बिलकुल सही हैं.
आप भी चाहें तो आधिकारिक साईट पर जाकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं.

Sunday, 8 May 2016

'माँ तू कहाँ है!'

सोचा आज माँ पर कविता लिखूं,
लिखने बैठा तो समझ न आया क्या लिखूं!

लिखूं उसके प्यार का गीत,
या त्याग की कहानी लिखूं।
हर खुशी है जिसकी मुझसे,
क्या उसकी ज़ुबानी लिखूं।

लिखूं ममता का आँचल,
गोद में मिलने वाला चैन लिखूं।
बीमार और बेचैन था जब,
तब क्यों भीगे उसके नैन लिखूं।

लिखूं वक़्त जो मेरे नाम किया,
जो दिया मुझे वो प्यार लिखूं।
लिखूं उसने चाहा मुझे कितना,
या फिर इसका आभार लिखूं।

क्यों लिखूं उस रिश्ते की कहानी चंद शब्दों में,
जिसे बयां करने को सारी ज़िन्दगी अधूरी है।
जिससे हूँ जिसका हूँ और जिसके लिए हूँ मैं,
कोई और नहीं एक 'माँ' वो मेरी है।

और हां!
हमारे इस जहाँ में, एक उनका भी जहाँ है,
जिन मासूमों को नहीं उनकी माँ का पता है।
हम आज शान से कहते हैं, मेरे पास माँ है!
वो बच्चे आज भी पूछ रहे,'माँ! तू कहाँ है?'

-: प्राणेश तिवारी (स्वरचित)

Saturday, 30 April 2016

अधूरा सच, एक वाकया जिसने मुझे एहसास कराया- आँखें हमेशा सच नहीं देखतीं!

आँखें हमेशा सच देखें ये ज़रूरी नहीं! फिल्मों में ऐसा दिखाना ज़रा आसान होता है, आम जिंदगी में ऐसा होगा एक बार को कोई नहीं मानता. रोज़ हमें जाने कितनी ख़बरें देखने को मिलती हैं, और हम एक पल में उनपर यकीन कर लेते हैं. एक वाकया हुआ मेरे साथ और मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि किसी मामले में अपनी राय बनाने में हम ज़रा भी वक़्त नहीं लगाते.

हुआ यूं कि 25 अप्रैल, सोमवार शाम मैं लखनऊ से वापस घर लौट रहा था. मैंने सड़क के किनारे अंगौछा बिछाकर बैठे एक बुजुर्ग को देखा. मुझे लगा शायद कोई भिखारी होगा. मैं घर पहुंचा और थोड़ी देर बाद किसी काम से फिर बाहर निकलना पड़ा. वो बुजुर्ग अब भी वहीँ बैठा था. तभी एक लगभग 40 साल का व्यक्ति वहां आया और उसने बुजुर्ग को पीटना शुरू कर दिया, बेहद गुस्से में दिख रहे उस व्यक्ति ने बुजुर्ग से भीख में मिले पैसे दिखाने को कहा और उसे भगाने लगा.


ये देखकर मुझे बेहद गुस्सा आया. एक बार को मन हुआ कि इसका वीडियो बनाऊं और पुलिस में दे दूं. अंधेरा होने की वजह से ऐसा नहीं कर पाया, लेकिन मुझसे और नहीं सहा गया. आखिर मैंने उससे पूंछा कि वो ऐसा क्यों कर रहा है. बेहद गुस्से में मैंने उसे ऐसा करने से मना किया.

अगले ही पल उसका रोल बदल गया, उस निर्दयी से दिख रहे आदमी की आँखें भर आई और उसने कहा, 'बेटा! ये मेरे बड़े भाई हैं. जाने कब एक रेल हादसे में इनके दोनों पैर कट गए. आठ साल तक ये घर वापस नहीं लौटे. अचानक एक दिन देवां में हाजी वारिस अली शाह की दरगाह  पर गए मेरे गाँव के कुछ लोगों ने इन्हें भीख मांगते हुए देखा. जून 2015 में मैं भी इन्हें ढूँढ़ने दो बार वहां गया और इन्हें घर वापस लाया.

तब से ये मेरे साथ रह रहे हैं, जो हम खाते-पहनते हैं वही इन्हें भी देते हैं. इन्हें घर में बोरियत होती है. तो हमने इन्हें बाहर कुर्सी पर बिठाना शुरू किया, लेकिन ये अपनी आदत से मज़बूर हैं. आज दोपहर में मेरी आँख लग गई और मौक़ा पाते ही ये घर से बाहर निकल आए, भीख मांगने बैठ गए. ऐसे में बेटा आप ही बताओ, मुझपर क्या बीतेगी। सब देखकर यही कहेंगे कि बिचारे को कुछ खाने को नहीं देता, परेशान करता हूँ.

जो इंसान कुछ देर पहले तक क्रूर और निर्दयी लग रहा था, अब आँखों में आंसू लिए बेचारा लग रहा था. मैं कुछ बोलने की हालत में ही नहीं था. वह खुद ये मान रहा था कि बड़े भाई को डांटना या उनपर हाथ उठाना उसे तकलीफ देता है, लेकिन जब भाई ऐसी हरकत करे तो गुस्सा आना वाजिब है.

अब मैं शर्मिन्दा था, मैंने बिना पूरी बात समझे उसे बुरा समझ लिया था. आँखों ने जो देखा उसे सच मान बैठा, क्योंकि भरोसा है इन आँखों पर, जो नज़रों के सामने हो वो झूठ कैसे हो सकता है. आज हमारी आँखें रोज ऐसे अधूरे सच देखती हैं  और उनपर एक पल में यकीन कर लेती हैं. किसको इतनी फुर्सत है कि हर घटना पर रिसर्च करे.

मैं सोच रहा था अगर मैं उस आदमी से बात ही न करता और उसका वीडियो बनाकर शेयर कर देता तो चंद घंटों में उसे सैकड़ों लोग भला-बुरा कह रहे होते, कमेंट्स की बाढ़ आ जाती. जो इंसान सच में अच्छा है उसे बुरा बनने में वक़्त नहीं लगता. रोज हम जाने कितने वायरल वीडियोज़ और फोटोज पर आँखें मूँद कर भरोसा करते हैं और किसी इंसान को बुरा या हीरो मान लेते हैं.

ये घटना मैंने आपसब के साथ सिर्फ इसलिए शेयर की, जिससे अगली बार आप किसी भी फोटो या तस्वीर को देखकर अपनी राय न बनाएं. समझने की कोशिश कीजिये, आपको कितनी  आसानी से बेवकूफ बनाया जा रहा है. तो अगली बार अगर आपको कोई ब्रेकिंग न्यूज़ उड़ती भैंस की दिखे तो सिर्फ वीडियो पर भरोसा न करें, क्योंकि आँखों देखा हमेशा सच हो ये ज़रूरी नहीं!

Monday, 25 April 2016

पता भी नहीं चलेगा और हो जायेंगे 'बैंक फ्रॉड' (ठगी) के शिकार! कैसे बचें...

बैंक की पहुँच अब हमारे लैपटॉप से लेकर मोबाइल तक हो चुकी है. ऑनलाइन शॉपिंग युवाओं के बीच ट्रेंड बन चुका है., ऐसे में ठग और जालसाज भी हाईटेक तरीके अपना रहे हैं. आइये जानते हैं क्या हैं ये हाईटेक तरीके और कैसे होगा इनसे बचाव,

   फिशिंग(इन्टरनेट फ्रॉड)


इसमें आपके मेल इनबॉक्‍स में आपकी बैंक से एक मेल आता है.
इसके जरिए आपका बैंक अकाउंट नंबर, पासवर्ड और कई व्यक्तिगत जानकारी मांगी जा सकती है.
कुछ मेल लॉटरी निकलने के होते हैं, जो लालच देते हैं.
ऐसे मेल फर्जी होते हैं जो ठग भेजते हैं.
अपना पासवर्ड या एटीएम पिन कभी भी मेल पर शेयर न करें.
बैंक कभी भी आपकी निजी जानकारी मेल से नहीं मांगते.


              वेब फिशिंग(फर्जी साइट)

वेबसाईट फिशिंग में अटैकर्स एक असली वेबसाईट जैसा दिखने वाला पेज बना देते है.
लोग धोखे में आकर उनमें लॉग इन कर देते हैं.
इससे आपके डीटेल्स और पासवर्ड उनके पास चले जाते हैं.
असली साईट के नाम से पहले बंद ताला बना दिखता है.
साथ ही हरे रंग से https लिखा होता है.




 विशिंग(अकाउंट डीटेल्स का वेरिफिकेशन)

इसमें अटैकर आपको फ़ोन कर आपसे जानकारी हासिल करता है.
कॉल में दूसरा व्यक्ति खुद को आपको बैंक या क्रेडिट कार्ड का एक्जिक्‍यूटिव या मैनेजर बताता है.
वह आपको लुभावने ऑफर देता है या अपनी निजी जानकारी वैरीफाई करने को कहता है.
अगर आपने क्रेडिट कार्ड या ऐसी सुविधा के लिए अप्लाई ना किया हो तो निजी जानकारियां बिल्कुल न दें.
true-caller app इसमें मदद कर सकता है.

         

         स्मिशिंग(बैंक का फेक SMS)

आपको बैंक की और से एक फर्जी SMS मिलता है.
जिसमें अपने डीटेल्स मैसेज में टाइप कर भेजने की बात लिखी होती है.
यह SMS आपकी जानकारी वैरीफाई करने का दावा करता है.
भूल से भी ऐसे किसी मैसेज का जवाब न दें.

  
    
    स्किमिंग(डेबिट कार्ड से शॉपिंग)

यह फ्रॉड डेबिट या क्रेडिट कार्ड से शॉपिंग करते वक़्त हो सकता है.
इसमें रीटेलर आपका कार्ड मशीन में स्वाइप करता है.
मशीन के साथ लगी किसी दूसरी डिवाइस में कार्ड के मैग्नेटिक टेप में सेव डाटा फीड हो जाता है.
बाद में उस डाटा का उपयोग खरीददारी के लिए किआ जा सकता है.
कार्ड से खरीददारी के वक़्त सतर्क रहें.

 कार्डिंग(फर्जी डेबिट कार्ड)

इसमें किसी के खोए हुए या चोरी किए गए कार्ड से ठगी होती है.
आपकी जानकारी हासिल होने के बाद अटैकर नया कार्ड बनाता है.
पहले इस फर्जी कार्ड के टेस्ट के लिए वह छोटा लेनदेन करता है.
इसके बाद आपके अकाउंट से बड़ी रकम निकल जाती है.
कार्ड खोने पर तुरंत बैंक में रिपोर्ट करें.



               अनसिक्योर ब्राउजिंग

ऑनलाइन बैंकिंग पब्लिक कंप्यूटर पर करने से आप फ्रॉड का शिकार हो सकते हैं.
कुछ साइबर कैफे आपका पासवर्ड और डीटेल्स अपने आप सेव कर लेते हैं, और आपको पता भी नहीं चलता.
बाद में वो इस जानकारी का उपयोग रकम निकासी के लिए करते हैं.
पब्लिक वाईफाई का प्रयोग बैंकिंग के लिए करने पर भी ऐसा हो सकता है.
बैंकिंग न करें और इसके लिए हमेशा अपने निजी कंप्यूटर का इस्तेमाल करें.


    एप-फिशिंग

कई एंड्राइड एप्लिकेशन्स आपके फ़ोन से डाटा चुरा सकती हैं.
अटैकर एक फेक app बनाता है जो दिखने में सिंपल सी लगती है.
लेकिन ये app आपके फ़ोन में टाइप की गई डीटेल्स उसतक पहुंचा देती है.
आपको अंदाज़ा भी नहीं लगता और आपका डाटा चोरी हो जाता है.
apps केवल एप-स्टोर से ही डाउनलोड करें.



        मोबाइल बैंकिंग

मोबाइल बैंकिंग का बढ़ता चलन इसकी वजह बना है.
पेटीएम और मोबीक्विक जैसी सेवाएँ सीधे बैंक खाते को मोबाइल से जोड़ देती हैं.
मोबाइल खो जाने पर इनसे पेमेंट आसानी से किया जा सकता है.
बहुत से अटैकर मोबाइल चोरी कर ऐसा करता हैं.
मोबाइल पर पासवर्ड लगाकर रखें और फोन खोने पर तुरंत रिपोर्ट करें.



 वायरस

कम्यूटर पर बैंकिंग करते वक़्त हैकर्स वायरस इंजेक्ट करने की कोशिश करते हैं.
ये वायरस उसे जानकारी देते हैं कि आप क्या टाइप कर रहे हैं.
आप सामान्य रूप से कंप्यूटर चलते हैं और आपको पता भी नहीं चलता.
इससे बचने के लिए ज़रूरी है कि कम्यूटर में फायरवाल ऑन रखें.
अपने एंटीवायरस सॉफ्टवेयर को अपडेट करते रहें.